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नमस्कार!
देश में आज और कल दशहरा मनेगा। कोरोना की वजह से कई जगह रावण दहन नहीं होगा। जहां दहन होगा, वहां भी रावण की ऊंचाई 90% तक कम रहेगी। बहरहाल, शुरू करते हैं मॉर्निंग न्यूज ब्रीफ...
आज इन इवेंट्स पर रहेगी नजर
देश-विदेश
प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रैली के अगले ही दिन भाजपा के बिहार चुनाव प्रभारी देवेंद्र फडणवीस कोरोना पॉजिटिव हो गए। वे मोदी की रैलियों की तैयारियों में शामिल थे, हालांकि बीमार होने के चलते उन्होंने मोदी के साथ मंच साझा नहीं किया था। उनसे पहले बिहार के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी, सांसद राजीव प्रताप रूडी, भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन और पूर्व कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह भी कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं।
कोरोना पर लापरवाही: मोदी ने शुक्रवार को सासाराम में रैली की थी। सासाराम से भास्कर रिपोर्ट कहती है कि एक भी ऐसी चुनावी सभा नहीं दिखी, जहां कोरोना को लेकर सावधानी बरती गई हो। नेता वोट के चक्कर में फंसे हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि कोरोना से पहले वाले दिन वापस आ गए हैं।
नवरात्र के 8वें दिन भास्कर ने देश के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों का जायजा लिया। यहां न पहले की तरह भव्य पंडाल हैं, न देवी मां की बड़ी प्रतिमाएं, न कोई मेला लगा है, लेकिन श्रद्धालुओं की आस्था परवान पर है। खासकर, मध्य प्रदेश के मंदिरों में कोरोना पर भक्ति भारी है। हालांकि, दूसरे राज्यों में ज्यादातर मंदिर बंद हैं। जो खुले भी हैं, उनमें पहले के मुकाबले भक्तों की भीड़ कम है।
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कोरोना ने दशहरा उत्सव पर बड़ा असर डाला है। भास्कर ने 11 शहरों में जायजा लिया कि कोरोना के चलते दशहरे के उत्सव पर क्या फर्क पड़ा है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में रावण के छोटे पुतले जलाए जाएंगे। राजस्थान और चंडीगढ़ में दशहरे के सार्वजनिक कार्यक्रम नहीं होंगे। कुछ जगहों पर मेला समितियों ने वर्चुअल टेलीकास्ट की इजाजत मांगी है। एमपी में रावण की ऊंचाई 90% तक कम हुई है। जयपुर में 70 साल पुरानी परंपरा टूटने जा रही है।
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मध्य प्रदेश से दिलचस्प खबर है। ग्वालियर-ईस्ट सीट से विधानसभा का उपचुनाव लड़ रहे भाजपा प्रत्याशी और शिवराज कैबिनेट के मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर कांग्रेस कार्यकर्ता के कदमों में झुक गए। उनका वीडियो वायरल हो गया। उन्होंने कांग्रेस कार्यकर्ता के हाथ जोड़े, पैर पड़े और कहा- तुम्हें हमारी कसम! किसी और के साथ मत जाना।
अमेरिका में 3 नवंबर को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में कोरोना सबसे बड़ा मुद्दा बन रहा है। डेमोक्रेट कैंडिडेट बाइडेन ने शुक्रवार को कहा- कोरोना को काबू करने के मामले में ट्रम्प एडमिनिस्ट्रेशन पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। अगर मैं राष्ट्रपति बना तो हर अमेरिकी को मुफ्त में वैक्सीन लगाई जाएगी। भले ही उसका बीमा हो या न हो। इधर, बिहार में भाजपा भी चुनाव जीतने पर लोगों को कोरोना की फ्री वैक्सीन देने का वादा कर चुकी है।
ओरिजिनल
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी है हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा। इस पार्टी से वे इकलौते विधायक हैं। वे बिहार की लगभग हर राजनीतिक पार्टी में रहे हैं। भास्कर ने उनसे सवाल किया कि नतीजों के बाद कहीं से ऑफर मिला तो क्या करेंगे? जवाब में बोले- चलिए, अब ई सब फालतू बात मत कीजिए। जाइए अब बहुत हो गया...
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मर्द कभी सरेआम किसी इमरती को आइटम घोषित कर देते हैं, तो कभी सड़कों की क्वालिटी के पैमानों को समझाने की खातिर उन्हें हेमा मालिनी के गाल जैसा बता देते हैं। मन के कैसे-कैसे मैल दिख रहे हैं। राजनीति न हो गई मानो मर्द जाति की व्यक्तिगत बिसात हो गई। बेशक, हिंदुस्तान की राजनीतिक गलियां औरतों के लिए तंगदिल रही हैं।
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गुजरात के मैकेनिकल इंजीनियर हरेश पटेल फेब्रिकेशन का काम करते थे। डेढ़ साल पहले 4 गायें पाल लीं। अब 44 गायें हैं। वे अब गाय के दूध से घी बनाते हैं, जिसकी मार्केट में कीमत 1700 रुपए किलो है। गोमूत्र से अर्क और गोबर से इकोफ्रेंडली धूपबत्ती बनाते हैं। अब वे हर साल 8 लाख रुपए की कमाई कर रहे हैं।
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एक्सप्लेनर
देश में करीब दो महीने बाद कोरोना के एक्टिव मामलों की संख्या सात लाख से कम हो गई है। ऐसे में एक स्टडी का यह दावा उत्साह बढ़ाने वाला है कि भारत हर्ड इम्युनिटी के लेवल पर पहुंच गया है। स्टडी के मुताबिक देश में 38 करोड़ लोगों को कोरोना हो चुका है।
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डेटा स्टोरी
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 रिपोर्ट में एयर पॉल्यूशन से बच्चों पर पड़ने वाले असर के बारे में बताया गया है। क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस, दिल और फेफड़े के रोगों के बाद मौतों का चौथा बड़ा कारण है एयर पॉल्यूशन। इसने भारत में पिछले एक साल 1.16 लाख छोटे बच्चों की जान ले ली।
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सुर्खियों में और क्या है...
1. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने रिटर्न भरने की आखिरी तारीख को एक बार फिर आगे बढ़ाया है। जिन लोगों को अपने रिटर्न के साथ ऑडिट रिपोर्ट नहीं लगानी पड़ती, वे 2019-20 के लिए अपना रिटर्न 31 दिसंबर तक जमा कर सकते हैं। पहले आखिरी तारीख 30 नवंबर तय की गई थी।
2. राजद ने शनिवार को घोषणापत्र जारी कर दिया। इसमें कैबिनेट की पहली बैठक में 10 लाख युवाओं को स्थाई सरकारी नौकरी देने का वादा दोहराया गया है। तेजस्वी यादव ने पिछले दिनों यह चुनावी वादा किया था।
3. जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 की बहाली के लिए पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने मोर्चाबंदी शुरू कर दी है। शनिवार को नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला को इस गठबंधन का अध्यक्ष और महबूबा मुफ्ती को उपाध्यक्ष बनाने पर सहमति बनी।
4. पाकिस्तान के सबसे बड़े टीवी न्यूज चैनल ‘जियो न्यूज’ के सीनियर रिपोर्टर अली इमरान सैयद को शुक्रवार रात अगवा कर लिया गया। अली ने मंगलवार को कराची के उस होटल के सीसीटीवी फुटेज सोशल मीडिया पर रिलीज किए थे, जहां से नवाज शरीफ की बेटी मरियम के पति कैप्टन सफदर को फौज जबरदस्ती अपने साथ ले गई थी।
5. सरकार ने देश की 4 हजार आर्मी कैंटीन्स को विदेशी सामान आयात न करने का आदेश दिया है। इसमें महंगी विदेशी शराब भी शामिल है। सरकार ने यह फैसला आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत किया है।
हिन्दू कैलेंडर के मुताबिक आश्विन महीने की दशमी तिथि और विजय मुहूर्त के संयोग पर विजयादशमी का पर्व मनाया जाएगा। इस संयोग की तारीख को लेकर असमंजस है। ज्योतिषियों के मुताबिक 25 अक्टूबर को दशमी तिथि के दौरान दिन में विजय मुहूर्त में श्रीराम, वनस्पति और शस्त्र पूजा करनी चाहिए। इसके बाद मूर्ति विसर्जन और शाम को रावण दहन की परंपरा है।
विजयादशमी को ज्योतिष में अबूझ मुहूर्त कहा गया है। यानी इस दिन प्रॉपर्टी, व्हीकल और हर तरह की खरीदारी की जा सकती है। इस दिन पूजा, खरीदारी और विसर्जन के लिए 3 मुहूर्त हैं। वहीं, इसके अगले दिन सूर्योदय के समय दशमी तिथि होने से 26 अक्टूबर को भी मूर्ति विसर्जन किया जा सकेगा। इस दिन सुबह करीब 11:30 तक दशमी तिथि होने से मूर्ति विसर्जन के लिए 2 मुहूर्त रहेंगे।
विजयादशमी के बारे में ज्योतिषियों का मत
इस बार दशहरा देश के कुछ हिस्सों में 25 को तो कुछ जगह 26 अक्टूबर को मनाया जा रहा है। वाराणसी, तिरुपति और उज्जैन के ज्योतिषाचार्यों का कहना है कि पंचांग गणना के मुताबिक 25 अक्टूबर को विजयादशमी पर्व मनाना चाहिए। विद्वानों का कहना है कि पंजाब, मुंबई और राजस्थान के भी बड़े पंचांगों में दशहरा 25 अक्टूबर को बताया गया है। क्योंकि इस दिन दशमी तिथि में अपराह्न काल और विजय मुहूर्त का संयोग बन रहा है। इसके अगले दिन यानी 26 अक्टूबर को सूर्योदय के समय दशमी तिथि होने से इस दिन मूर्ति विसर्जन किया जा सकता है।
विजयादशमी के मुहूर्त - (25 अक्टूबर, रविवार)
1. दोपहर 1.30 से 2.50 तक (विसर्जन और खरीदारी मुहूर्त)
2. दोपहर 2.00 से 2.40 तक (खरीदारी, अपराजिता, शमी और शस्त्र पूजा मुहूर्त )
3. दोपहर 3.45 से शाम 4.15 तक (विसर्जन और खरीदारी मुहूर्त)
विसर्जन के मुहूर्त - (26 अक्टूबर, सोमवार)
1. सुबह 6.30 से 8.35 तक
2. सुबह 10.35 से 11.30 तक
रावण पुतला दहन की परंपरा
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के मुताबिक विजयादशमी पर श्रीराम ने युद्ध के लिए यात्रा की शुरुआत की थी। विद्वानों का कहना है कि इस दिन धर्म की रक्षा के लिए श्रीराम ने शस्त्र पूजा की थी। इसके बाद रावण की प्रतिकृति यानी पुतला बनाया था। फिर विजय मुहूर्त में स्वर्ण शलाका से उसका भेदन किया था। यानी सोने की डंडी से उस पुतले को भेद कर युद्ध के लिए प्रस्थान किया था। विद्वानों के मुताबिक ऐसा करने से युद्ध में जीत मिलती है। माना जाता है कि तुलसीदास जी के समय से विजयादशमी के दिन रावण दहन की परंपरा शुरू हुई।
विजय प्रस्थान का प्रतीक
भगवान राम के समय से यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान राम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था और कई दिनों बाद रावण से युद्ध के लिए इसी दिन को चुना। इसके बाद द्वापर युग में अर्जुन ने धृष्टद्युम्न के साथ गोरक्षा के लिए इसी दिन प्रस्थान किया था। वहीं मराठा रत्न शिवाजी ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म की रक्षा की थी। भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण हैं, जब हिन्दू राजा इस दिन विजय-प्रस्थान करते थे। दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है।
दशहरे का व्यावहारिक महत्व
अश्विन महीने के शुक्लपक्ष के शुरुआती 9 दिनों तक शक्ति पूजा की जाती है। यानी अपने अंदर की सकारात्मक ऊर्जा को पहचान कर देवी रूप में उसका पूजन किया जाता है। इन 9 दिनों तक शक्ति पूजा करने के बाद दसवें दिन शस्त्र पूजा की जाती है। यानी अच्छे कामों का संकल्प लिया जाता है। इसी दिन अपनी सकारात्मक शक्तियों से नकारात्मक शक्तियों पर जीत प्राप्त की जाती है यानी खुद की बुराई पर जीत हासिल करना ही विजय पर्व माना गया है।
भास्कर एक्सपर्ट पैनल :
डॉ. कामेश्वर उपाध्याय, राष्ट्रीय महासचिव, अखिल भारतीय विद्वत परिषद, बनारस
डॉ. कृष्णकुमार भार्गव, केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति
पं. गणेश मिश्र, असि. प्रो. दीनदयाल उपाध्याय कौशल केंद्र, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय
पं. आनंद शंकर व्यास, पंचांगकर्ता, उज्जैन
डॉ. रामनारायण द्विवेदी, मंत्री, काशी विद्वत परिषद, बनारस
प्रो. गिरिजाशंकर शास्त्री, ज्योतिष विभाग, काशी हिंदू विश्व विद्यालय
कोरोना से ठीक हो चुके मरीज, अब दूसरी बार भी संक्रमित हो रहे हैं। हाल ही में महाराष्ट्र में 4 डॉक्टर दूसरी बार कोरोना संक्रमित हो गए। देश और दुनिया में इस तरह के मामले अब रोज आ रहे हैं। रिसर्च के मुताबिक, दूसरी बार कोरोना पहली बार की तुलना में ज्यादा खतरनाक है।
एम्स दिल्ली में रुमेटोलॉजी डिपॉर्टमेंट की हेड डॉ. उमा कुमार कहती हैं कि कोरोना से ठीक हो चुके 100 में से 20 लोगों में पोस्ट कोविड-19 सिंड्रोम देखने का मिल रहा है। मतलब मरीज कोरोना से ठीक तो हो रहे हैं, लेकिन उनमें कोरोना का कोई न कोई लक्षण बाकी रह जा रहा है।
री-इंफेक्शन्स के भी ज्यादा केस आ रहे हैं। हालांकि, हर किसी में यह सीरियस ही होगा, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। इसलिए वे लोग जो कोरोना से ठीक हो चुके हैं, उन्हें भी सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और हाथ धोने जैसी बेसिक गाइडलाइन का पालन पहले की ही तरह करना चाहिए।
ठीक हुए मरीजों को क्या दिक्कतें हो रही हैं?
दोबारा कोरोना होने को लेकर जो रिसर्च रिपोर्ट आ रही हैं, वो डराने वाली हैं। ब्रिटेन में हुई एक स्टडी में पता चला है कि कोविड-19 के मरीजों को अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद भी कई लक्षणों का सामना करना पड़ रहा है। कई मरीजों में दो-तीन महीनों तक सांस फूलने, थकान, चिंता और अवसाद जैसे लक्षण दिख रहे हैं।
रिसर्च में क्या पता चला?
आर्गन्स पर क्या असर छोड़ रहा है कोरोना?
डॉ. उमा कहती हैं- कोरोना से ठीक होने वाले मरीजों का सीटी स्कैन करने पर कई चौंकाने वाली चीजें भी देखने को मिल रही हैं। ठीक हुए मरीजों के आर्गन्स पर संक्रमण का गहरा असर हो रहा है। उनके आर्गन्स डैमेज भी हो रहे हैं। कई मरीजों के लंग्स सही से काम नहीं कर रहे हैं। ए-सिम्प्टमेटिक (जिनमें लक्षण दिखाई नहीं देते) मरीजों में भी ये लक्षण देखने को मिल रहे हैं।
दोबारा कोरोना क्यों हो रहा है?
डॉ. उमा कहती हैं कि कोई भी वायरस जब ज्यादा समय तक वातावरण में रहता है, तो वह माइल्ड होगा या ज्यादा खतरनाक होगा। रिस्क दोनों तरह का होता है। कोरोना से ठीक हुए कुछ मरीजों में एंटीबॉडीज डेवलप नहीं हो पा रही हैं। कुछ मरीजों में एंटीबॉडीज डेवलप हो रही हैं, पर तीन-चार महीने में खत्म भी हो जा रही हैं।
आइए समझते हैं कि कोरोना कैसे दोबारा हो रहा है?
अमेरिका में 25 साल के एक लड़के को दो बार कोरोना हुआ। दूसरी बार लक्षण बहुत ज्यादा गंभीर थे। उसे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। फेफड़ा शरीर में कम मात्रा में ही ऑक्सीजन सप्लाई कर पा रहा था। इस लड़के की केस स्टडी लैंसेट मैगजीन में प्रकाशित हुई है। इसे ऐसे समझते हैं...
25 मार्च- गले में खराश और खांसी शुरू हुई। सिर दर्द और डायरिया भी हो गया।
18 अप्रैल- जांच में पॉजिटिव रिपोर्ट आई।
27 अप्रैल- शुरुआती सिंप्टम्स पूरी तरह से गायब हो गए।
9 और 26 मई- दो बार टेस्ट कराया दोनों बार निगेटिव आया।
28 मई- दूसरी बार सिम्पटम्स दिखाई दिए। इस बार बुखार, सिर दर्द, खांसी, जुकाम, डायरिया हुआ।
5 जून- दूसरी बार पॉजिटिव आया। सांस लेने में भी दिक्कत थी।
कोरोना को लेकर लगातार अच्छी खबरें आ रही हैं। मरीजों का आंकड़ा 78.24 लाख को पार कर चुका है, लेकिन राहत की बात यह है कि करीब 90% लोग रिकवर कर चुके हैं। 19 अक्टूबर को 87% रिकवरी रेट था, जो 24 अक्टूबर तक 89.74% गया। तीन दिन में एक्टिव केस में भी 58 हजार की कमी हुई है।
क्या इसका मतलब है कि कोरोना का खतरा खत्म हो गया? नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन से लेकर केंद्र सरकार के अधिकारी और विशेषज्ञ दोहरा रहे हैं कि अब और सावधान रहने की जरूरत है। क्या है इसका कारण? क्या है दूसरी लहर, जिसका डर दिखाया जा रहा है?
सबसे पहले समझते हैं कि महामारी में दूसरी लहर क्या होती है?
भारत में क्या स्थिति है और जिम्मेदार क्या कह रहे हैं?
यूरोप में क्या हो रहा है, जिसके नाम पर डरा रहे हैं?
Terrifying. Sobering. Italy did everything "right" to stop a second wave. It came anyway. Health ministry data shows that 80.3 percent of the new infections “occur at home” while only 4.2 percent come from recreational activities and schools." https://t.co/dSqYDWOqC1
— Noah Shachtman (@NoahShachtman) October 22, 2020
France: daily conformed Covid-19 cases and deaths.#deuxiemevague #SecondWave #SecondLockdown #zweitewelle pic.twitter.com/kf6qH729Ws
— Zack F (@FrankfurtZack) September 25, 2020
...तो क्या यूरोप में फिर लॉकडाउन लगा है?
क्या भारत में फिर से लॉकडाउन लग सकता है?
पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा भी इस बार कोरोना की भेंट चढ़ गई है। हालात यह हैं कि जिन पंडालों पर करोड़ों रुपए खर्च होते थे, उनका खर्च इस साल 8-10 लाख पर आ गए है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यहां बिजनेस घरानों से मिलने वाले चंदे में भारी कमी आई है। इससे पंडालों ने सीमित खर्च किया है। बंगाल के दुर्गा पूजा के इतिहास में यह पहली बार यह नजारा देखने को मिला, जब पंडालों में ना तो कोई खास तामझाम नहीं किया गया है और ना श्रद्धालुओं की लंबी कतारें हैं।
फोरम फॉर दुर्गोत्सव के मुताबिक, पांच दिनों तक चलने वाली कोलकाता की 100 बड़ी पूजा फेस्टिवल में करीब 4500 करोड़ रुपए का लेनदेन होता है। जबकि, पूरे पं. बंगाल में करीबन 15,000 करोड़ रुपए का लेन-देन होता है। वहीं, लाखों की संख्या में रोजगार देने वाली इस पूजा ने इस साल कई लोगों को बेरोजगार कर दिया है। टूर एंड ट्रैवल, फूड और गारमेंट्स इंडस्ट्री ठप होने के चलते इस साल केवल 30-40% को ही काम मिल पाया है।
कोलकाता में हर साल कुल 4500 कम्युनिटी पूजा होती है। इनमें 200 पूजा ऐसी हैं, जिनमें हर पूजा में 50 से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। 4300 ऐसे पूजा पंडाल हैं, जिनमें 20 से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। कुल मिलाकर एक लाख के करीब रोजगार पैदा होते हैं और 10 हजार अस्थाई रोजगार पैदा होते हैं। इनमें टैक्सी ड्राइवर, टूर गाइड्स आदि होते हैं।
कॉरपोरेट जगत से नहीं मिला ज्यादा सहयोग
बंगाल की दुर्गापूजा करीब 80% खर्च स्पॉन्सरशिप पर निर्भर रहता है। बाकी रकम इलाके से चंदा इकट्ठा करके और प्राइज मनी से जुटाई जाती है। इस साल कॉरपोरेट जगत से कुछ खास मदद नहीं मिल पाई है। कोरोना और लॉकडाउन के चलते लगभग सभी सेक्टर्स प्रभावित हुए हैं। हर साल कॉरपोरेट जगत से जितना फंड मिलता था, उसका केवल 25% ही फंड मिला। कंपनियों का मानना है कि कोरोना के चलते पहले ही वे नुकसान में हैं, ऊपर से महामारी में ज्यादातर लोग घूमने-फिरने से बच रहे हैं। ऐसे में कंपनियों को ब्रांडिंग से कुछ खास फायदा नजर नहीं आ रहा है।
ब्रांड के जानकारों के मुताबिक, कोलकाता पूजा के दौरान कॉर्पोरेट 800 से लेकर 1000 करोड़ रुपए से ज्यादा तक खर्च करते हैं। इसमें से बैनर्स के एडवरटाईज और गेट पर 1500-200 करोड़ रुपए का खर्च होता है। इस साल आयोजकों के सामने पूजा का खर्च निकालना चुनौतीभरा है। ऊपर से कलकत्ता हाई कोर्ट का आदेश कि पंडाल में सीमित विजिटर्स की ही एंट्री होगी। इस फैसले ने आयोजकों के सामने और मुसीबत खड़ी कर दी है। आदेश के बाद कई स्पॉन्सर्स पूजा पंडाल को स्पॉन्सर करने से मना कर दिया।
नार्थ कोलकाता के मोहम्मद अली पार्क, साउथ कोलकाता के भवानीपुर 75 पल्ली और चेतला अग्रणी जैसे बड़े पूजा पंडाल के आयोजकों का कहना है कि तृतीया के दिन जब सब कुछ तैयार हो गया, तब कलकत्ता हाईकोर्ट ने पंडाल वाले एरिया को कंटेनमेंट जोन में डाल दिया। पंडाल में विजिटर्स की संख्या को सीमित कर दिया। अगर यही फैसला पहले आ गया होता तो हम अपने बजट को और कम कर देते।
उनका मानना है कि कोर्ट फैसले के बाद कई ब्रांड ने पंडाल में पैसे लगाने से मना कर दिया। 75 पल्ली पूजा पंडाल के आयोजक व सचिव सबीर दास बताते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद करीब चार ऐसे ब्रांड हैं, जिन्होंने पंडाल को स्पॉन्सर करने से मना कर दिया। इन कंपनियों का मानना है, जब विजिटर्स आएंगे ही नहीं तो प्रमोशन किसके लिए करें। सबीर दास कहते हैं, पूजा पंडाल में 22 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक के लिए स्पॉन्सर्स के साथ हुई डील हाथ से निकल गई। इस डील से करीब 5 लाख रुपए आने वाले थे।
ऐसी कहानी केवल सबीर दास के साथ नहीं है। हर आयोजक का यही हाल है। 40-50 लाख में होने वाली पूजा का बजट 8 से 10 लाख पर आ गया। नॉर्थ कोलकाता में सबसे मशहूर पूजा पंडाल मोहम्मद अली पार्क (एमडी अली पार्क) में होता है। यहां सबसे बड़ा मेला लगता है। हर साल इस पंडाल का बजट 40 से 60 लाख तक हुआ करता था। लेकिन, इस साल इसका बजट केवल 12 लाख रह गया है।
28 साल की परंपरा को बरकरार रखना मजबूरी
साउथ कोलकाता का चेतला अग्रणी नाम से मशहूर पूजा पंडाल इस साल बेहद सिंपल थीम पर तैयार की गई है। हर साल यहां पूजा पंडाल में एंट्री के लिए करीब 20 गेट बनाए जाते थे और उन सभी गेट्स पर कंपनियों का भारी तामझाम रहता था, लेकिन अबकी बार केवल 7 गेट ही बने हैं। कंपनियों से करीब 20 से 25% ही फंडिंग हुई है। ऐसे में जहां हर साल 30 से 40 लाख तक के बजट में पंडाल तैयार किया जाता था, वो इस साल मात्र 8 लाख के आसपास में सिमट कर रह गई है।
यहां पिछले 28 साल से यहां पूजा का आयोजन किया जा रहा है। यही वजह है कि इस साल पूजा का आयोजन किया गया है ताकि यह परंपरा किसी तरह बची रहे। चेतला अग्रणी पूजा पंडाल को इस साल केवल 15-20 स्पाॅन्सर्स ही मिले हैं। आयोजकों को अपने जेब से पैसे लगाने पड़े हैं। ऊपर से मास्क, ग्लव्स और पीपीटी किट के चलते खर्च अतिरिक्त बढ़ गया है। हालांकि, इस साल ममता बनर्जी की सरकार ने सभी रजिस्टर्ड पूजा-पंडाल को सफाई और हाइजीन को ध्यान रखने के लिए अतिरिक्त खर्च को देखते हुए 50-50 हजार रुपए दिए हैं।
25 किलो सोने से तैयार हुई श्रीभूमि की मां दुर्गा
इस साल कोलकाता के श्रीभूमि स्पोर्टिंग क्लब ने केदारनाथ की थीम पर तैयार पंडाल में मां दुर्गा की मूर्ति को 25 किलो सोने के गहनों से सजाया है। इस पूजा के मुख्य सदस्य राज्य के मंत्री सुजीत बोस हैं। वे कहते हैं कि इस साल पूजा की रौनक फीकी जरूर है, मगर हमने मूर्ति के आकार और उसकी भव्यता से कोई समझौता नहीं किया है। हर साल की तरह इस साल भी हमने मां दुर्गा को सोने के गहनों से सजाया है।
श्रीभूमि स्पोर्टिंग क्लब हमेशा से भव्यता के लिए मशहूर रहा है। हालांकि, बजट को लेकर पूछे गए सवाल पर सुजीत बोस ने साफ कुछ नहीं बताया, लेकिन उन्होंने यह माना है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल पूजा पंडाल के बजट में 20% तक की कटौती हुई है। यह वही पूजा पंडाल है, जिसे 2018 में दुनिया का सबसे महंगा पंडाल होने का सर्टिफिकेट दिया गया था। बाहुबली की थीम पर तैयार पूजा पंडाल का बजट करीब 10 करोड़ रुपए था। पंडाल की ऊंचाई 110 फीट रखी गई थी।
पिछले साल 2019 में नार्थ कोलकाता के संतोष मित्रा स्क्वेयर में मां दुर्गा को 50 किलो सोने से तैयार किया गया था। बजट 20-25 करोड़ रुपए बताई गई थी। साउथ कोलकाता का मशहूर पूजा पंडाल भवानीपुर 75 पल्ली में इस साल कपड़े, धागे और मछली पकड़ने वाली जाल से पंडाल को तैयार किया गया है। इस साल इस पूजा का बजट 10 लाख रुपए के आसपास है। वहीं, पिछले साल करीबन 50 लाख के आसपास के बजट में पूजा का आयोजन किया गया था। इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स पहले ही अनुमान जता चुका है कि 2030 तक दुर्गा पूजा का टर्नओवर मेगा कुंभ मेला के बराबर हो जाएगा, जो कि करीब 1 लाख करोड़ रुपए है।
दुर्गापूजा से हो जाती थी सालभर की कमाई
हजारों की संख्या में ऐसे लेबर से लेकर मूर्तिकार और पूजा के दौरान छोटे-छोटे फूड का स्टॉल लगाने वालों की कमाई पर सीधा असर पड़ा है। इनकी कमाई का जरिया ही दुर्गा पूजा है। इस समय इनकी कमाई इतनी हो जाती है कि ये सालभर छोटे मोटे अन्य काम करके भी घर-परिवार मैनेज कर लेते थे। पिछले दस सालों से पंडाल के पास फूड ट्रक का कारोबार कर रहे आमिर अली इस साल दिन तीनों में महज 15-20 हजार रुपए की कमाई कर पाए हैं। हर साल पूजा में वे इस पांच से छह दिनों में दो लाख से ज्यादा कमा लेते थे।
पहली बार सिंदूर खेला रस्म के बगैर ही होगी मां की विदाई
बंगाल के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है, जब दुर्गा पूजा की परंपरा को ही बदलना पड़ा। दुर्गापूजा की शुरुआत मां की प्रतिमा में चक्षु दान के साथ की जाती है और पूजा संपन्न होती है सिंदूर खेला के साथ। ऐसी मान्यता है कि 9 दिन मायके में रहने के बाद मां अपनी ससुराल जाती हैं, इसके पूर्व महिलाएं पान के पत्ते में सिंदूर डालकर मां की मांग भरती है। उसके बाद वही सिंदूर वे एक-दूसरे को लगाती हैं। बता दें कि कोरोना संक्रमण बढ़ने के कारण कोर्ट ने सिंदूर खेला पर रोक लगा दी है।
दशहरा को कर्नाटक में स्टेट फेस्टिवल का दर्जा दिया गया है। यहां पर एक दिन नहीं, बल्कि 10 दिन तक दशहरा मनाया जाता है। इस दौरान सबसे खास होती है जम्बो सवारी और टॉर्च लाइट परेड। इसमें 21 तोपों की सलामी के साथ महल से हाथियों का जुलूस निकाला जाता है। इसमें एक ऐसा हाथी भी शामिल होता है, जिसे खास तरह से सजाया जाता है। इस हाथी पर 750 किलो सोने का एक सिंहासन रखा जाता है। इस पर देवी चामुंडेश्वरी की प्रतिमा रखी जाती है।
हर साल 750 किलो के सोने के सिंहासन पर मां चामुंडेश्वरी की प्रतिमा को लेकर हाथियों का काफिला मैसूरु के शाही राज महल से शहर में निकलता है, तो इसे देखने के लिए लाखों की भीड़ जमा होती है। अलग-अलग जिलों की झांकियां निकाली जाती है, लोक-कलाकार शोभा यात्रा में शामिल होते हैं।
इस बार कोरोना के चलते मां चामुंडेश्वरी की सवारी तो निकलेगी, लेकिन सिर्फ 300 लोग ही शामिल होंगे। इसके पहले करीब 10 लाख लोग शामिल होते थे। साथ ही इस बार कोई भी झांकी नहीं होगी और न ही लोक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते दिखेंगे।
मैसूरु में आज भी लगता है राजा का दरबार
मान्यता है कि मैसूरु दशहरे की शुरुआत 15 वीं शताब्दी में विजयनगर के शासकों ने की थी। लेकिन, इतिहास के पन्नों को पलटें, तो पता चलता है कि दशहरा उत्सव को भव्यता वाडयार शासनकाल में दी गई थी। वाडयार राजाओं ने तकरीबन 150 साल तक कर्नाटक पर राज किया था और मैसूरु को अपनी राजधानी बनाया, इसी दौरान मैसूरु दशहरा उत्सव को राजकीय उत्सव के रूप में मनाने का फैसला किया गया। आजादी के बाद भी राज्य सरकार ने इसे राजकीय उत्सव के रूप में मनाने जाने का क्रम जारी रखा।
नवरात्र में यहां राजा का खास दरबार लगाया जाता है। मैसूरु के वर्तमान महाराज यदुवीर कृष्णदत्त चामराज वाडियार सोने के सिंहासन पर बैठते हैं। पिछले साल तक कुछ खास लोगों को ये दरबार देखने का मौका मिलता था, लेकिन इस साल कोरोना संक्रमण के चलते इसकी भव्यता को भी कम कर दिया गया है। किसी भी बाहरी व्यक्ति के दरबार देखने पर पाबंदी लगा दी गई है।
कर्नाटक निजी टैक्सी असोसिएशन के महासचिव राधाकृष्ण होल्ला कहते हैं कि हर साल मैसूरु दशहरे के दौरान हमारे पास टैक्सी कम पड़ जाती थीं, लेकिन इस बार 5 फीसदी बुकिंग भी नहीं आई है। मैसूरु होटल ओनर्स असोसिएशन के अध्यक्ष सी नारायण गौड़ा का कहना है कि राज्य सरकार ने अनलॉक के दौरान पर्यटक स्थलों को खोलने का फैसला किया, तो उन्हें लगा कि कोरोना के चलते बीते 6 महीनों में जो नुकसान हुआ है कम से कम दशहरे के वक्त उसकी भरपाई कर ली जायेगी। लेकिन सरकार की तरफ से जो पाबंदियां लगाई गयीं हैं, उसने होटल मालिकों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। पहले से ही शहर में 100 से ज्यादा होटल, लॉज और रेस्टोरेंट्स बंद हो चुके हैं।
राज्य सरकार ने कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए 17 अक्टूबर से 1 नवंबर तक मैसूरु के आसपास के सभी पर्यटक स्थलों को बंद रखने का फैसला किया था, लेकिन टूर गाइड्स और होटल एसोसिएशन ने सीएम से मिलकर गुहार लगाई। जिसके बाद इस फैसले को रद्द कर दिया गया। नारायण गौड़ा के मुताबिक, दशहरा ही वो वक्त है जब होटल व्यापारी कमाई करते हैं, पूरे महीने की बुकिंग उन्हें मिलती है, लेकिन इस बार कोरोना के चलते सबकुछ चौपट हो गया है।
स्थानीय लोगों की मानें, तो ये पहली बार है जब दशहरा इतना फीका लग रहा है। मैसूरु में फोटो स्टूडियो चलाने वाले महेश कहते हैं कि पहली बार दशहरे के वक्त इतनी कम भीड़ देखने को मिल रही है, उत्सव से जुड़े सारे सांस्कृतिक कार्यक्रमों को या तो सीमित कर दिया गया है या फिर रद्द ही कर दिया गया है। सरकार मुख्य कार्यक्रम जम्बो सवारी का सीधा प्रसारण दिखाने की बात तो कह रही है, लेकिन दशहरा ऐसा पर्व नहीं है, जिसे ऑनलाइन देखा जा सके।
शाही महल की सजावट
इस दौरान मैसूरु के महल में होने वाले कार्यक्रम सबसे खास होते हैं। महल की सजावट भी देखने लायक होती है। महल को हजारों बल्ब से सजाया जाता है। दिलचस्प बात ये है कि इस तरह का बल्ब बनाने वाली कम्पनी मैसूर बल्ब्स अपना कारोबार बंद कर चुकी है, लेकिन सिर्फ मैसूरु राजमहल के लिए अभी भी ये कम्पनी बल्ब बनाती है। महल की रौनक को देखने लोग दूर-दूर से दशहरे के दौरान मैसूरु आते हैं।
साल भर में दशहरे के दौरान ही महल का एक हिस्सा आम जनता के लिए खोला जाता है। शहर में जगह-जगह हरिकाथे, कमसले पाडा, गमका, यक्षगाना और कठपुतलियों का प्रदर्शन प्रमुख होता है। वहीं रंगयाना में 9 दिनों के नाटक का आयोजन किया जाता है।
सीएम करेंगे जम्बो सवारी की शुरुआत
26 अक्टूबर को विजयदशमी के दिन जम्बो सवारी का मुहूर्त दोपहर 2 बजकर 5 मिनट से 2 बजकर 52 मिनट पर है। परम्परा के मुताबिक, राज्य के मुख्यमंत्री पहले राजमहल में नंदी द्वार की पूजा करेंगे। इसके बाद मैसूरु के महाराज यदुवीर कृष्णदत्त चामराज वाडियार के साथ मिलकर हाथी की पीठ पर सोने के सिंहासन में सजी मां चामुंडेश्वरी की प्रतिमा की पूजा कर जम्बो सवारी का आगाज करेंगे।
भारतीय लोकतंत्र में 25 अक्टूबर की तारीख बहुत खास है। 1951 में इसी दिन से चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई थी, जब हिमाचल प्रदेश के चिनी में पहला वोट डाला गया था। 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक यानी करीब चार महीने चली उस चुनाव प्रक्रिया ने पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों की कतार में भारत को ला खड़ा किया था। एक अहम फैक्ट यह है कि पहले लोकसभा चुनाव में प्रति वोटर खर्च आया था 60 पैसे, जो 2019 के चुनावों में बढ़कर करीब 72 रुपए हो गया।
यह तो सबको पता है कि भारत को आजादी 15 अगस्त 1947 को मिली और 26 जनवरी 1950 को भारत गणतंत्र बना। लेकिन, यह कम ही लोगों को पता होगा कि पहले आम चुनाव 1951-52 में कैसे हुए थे और किस तरह वोटिंग हुई थी। पहले चुनावों में लोकसभा की 497 तथा राज्य विधानसभाओं की 3,283 सीटों के लिए भारत के 17 करोड़ 32 लाख 12 हजार 343 रजिस्टर्ड वोटर थे। कुल 68 फेज में वोटिंग हुई थी।
आजादी के संघर्ष के कारण आम जनता में तो कांग्रेस का ही नाम बैठा था। इस वजह से कांग्रेस ने 364 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। उस वक्त एक निर्वाचन क्षेत्र में एक से अधिक सीटें थीं, इस वजह से 489 स्थानों के लिए 401 निर्वाचन क्षेत्रों में ही चुनाव हुआ। 1960 से यह व्यवस्था खत्म हो गई। एक सीट वाले 314 निर्वाचन क्षेत्र थे। 86 निर्वाचन क्षेत्रों में दो सीटें और एक क्षेत्र में तीन सीटें थीं।
पहले चुनावों में 10.59 करोड़ लोगों ने अपने नेता को चुनकर इतिहास रचा था। इनमें 10.59 करोड़ में करीब 85% अशिक्षित थे। अशिक्षित वोटर्स का ध्यान रखते हुए पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव चिह्न की व्यवस्था की गई थी। तब हर पार्टी के लिए अलग बैलेट बॉक्स था, जिन पर चुनाव चिह्न थे। लोहे की 2.12 करोड़ पेटियां बनाई गई थीं और 62 करोड़ मतपत्र छापे गए थे।
सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त थे। उन्होंने वोटर रजिस्ट्रेशन से लेकर, पार्टियों के चुनाव चिह्नों के निर्धारण और साफ-सुथरा चुनाव कराने के लिए योग्य अधिकारियों के चयन का काम किया। बैलेट बॉक्स और बैलेट्स को पोलिंग बूथ तक पहुंचाना बहुत मुश्किल था। मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को कंबल और बंदूक के लाइसेंस का लालच देकर उनसे चुनाव सामग्री पोलिंग बूथ्स तक पहुंचाने में मदद ली गई। खैर, यह चुनाव प्रक्रिया धीरे-धीरे इवॉल्व हुई और आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के तौर पर दुनिया को सिखा रहे हैं कि चुनाव कैसे कराने चाहिए।
25 अक्टूबर को इन घटनाओं के लिए भी याद किया जाता हैः
बस्तर का दशहरा सबसे खास और सबसे अलग होता है। इसका राम और रावण से कोई सरोकार नहीं है। यहां न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही रामलीला होती है। यहां दशहरा पूरे 75 दिनों तक चलता है। इन 75 दिनों में कई रस्में होती हैं, जिनमें एक प्रमुख रस्म रथ परिचालन की भी है। यह रस्म पिछले 610 सालों से चली आ रही है। कोरोनाकाल में कुछ समय पहले जब पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ब्रेक लगा था, तब लोगों ने सोचा था कि बस्तर दशहरा भी फीका रहेगा।
लेकिन, यहां प्रशासन और बस्तर दशहरा समिति ने बीच का रास्ता निकाला और 610 सालों से चली आ रही परंपरा को जारी रखा। इस परंपरा से आम लोगों को दूर किया गया और लोगों के दर्शन के लिए टेक्नाेलॉजी का सहारा लिया गया। यूट्यूब चैनल, टीवी के माध्यम से लोगों को पूरी प्रक्रिया के लाइव दर्शन करवाए जा रहे हैं और परंपराओं और रस्मों में सिर्फ जरूरी लोगों को हिस्सा लेने दिया जा रहा है।
कोरोना से बचने के लिए प्लानिंग
दशहरे के लिए पूरी प्लानिंग की गई। इसके तहत रथ बनाने वाले से लेकर देवी-देवताओं की पूजा करने वाले की लिस्टिंग की गई। गांवों से सिर्फ उन्हीं लोगों को बुलाया गया, जिनकी भागीदारी रस्मों में जरूरी है। गांव से शहर आने से पहले शहर के आउटर में इन लोगों का कोरोना चेकअप करवाया गया। जो लोग निगेटिव निकले, उन्हें शहर के अंदर एंट्री दी गई और रथ बनाने से लेकर इसे खींचने का काम करवाया गया। एक बार निगेटिव आने के बाद जांच का सिलसिला नहीं रोका गया। हर तीसरे दिन सभी का फिर से कोरोना टेस्ट करवाया जा रहा है। जिन लोगों को इन कामों में लगाया गया है, उन्हें बाकी लोगों से भी अलग रखा जा रहा है।
पूरे इलाके को सैनिटाइज किया रहा है
बस्तर दशहरे की दो प्रमुख रस्में हैं। इनमें फूल रथ का परिचालन और भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म हैं। फूल रथ का परिचालन आश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीया से लेकर सप्तमी तिथि तक होता है। इसके बाद भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म में रथ चलता है। पुलिस रथ चलने वाले रूट को सील कर रही है। पूरे इलाके को सैनिटाइज किया रहा है। जिन लोगों को रथ खींचना होता है, उनके हाथों को भी सैनिटाइज किया जाता है। सभी के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है।
साल में रथ के आकार में कोई फर्क नहीं पड़ा
बस्तर दशहरा इसलिए भी अनोखा है क्योंकि पिछले 610 साल से दशहरे में चलने वाले रथ के आकार में कोई फर्क ही नहीं आया है। यह लकड़ी का रथ 25 फीट ऊंचा, 18 फीट चौड़ा और 32 फीट लंबा बनाया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाला दशहरा हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ शुरू होता है। इसमें सभी वर्ग, समुदाय और जाति-जनजातियों के लोग हिस्सा लेते हैं।
इसके बाद बिरिंगपाल गांव के लोग सरहासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरी गड़ाई रस्म पूरी करते हैं। इसके बाद रथ बनाने के लिए जंगलों से लकड़ी लाने का काम शुरू होता है। झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के गांव वालों को दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है। इस पर्व में काछनगादी की पूजा अहम है। रथ निर्माण के बाद पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है। इस पूजा में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है।
दूसरे दिन गांव आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की साधना में बिना कुछ खाए बैठ जाता है। इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते हुए रथ की परिक्रमा की जाती है। रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है।
इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर होती है। पर्व के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है। वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 6 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है।
रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। निशाजात्रा का दशहरा के दौरान विशेष महत्व हैं।
राजस्थान के बीकानेर के जिस मैदान पर शहर का सबसे बड़ा रावण का पुतला जलता था, वहां इस बार रावण तो नहीं जलेगा, लेकिन 'रावण' की तरह फैल रहे कोरोना को हराने की कोशिश जरूर होगी। बीकानेर के धरणीधर ट्रस्ट की दशहरा कमेटी ने तय किया है कि रावण दहन का कार्यक्रम नहीं होने से बचने वाली रकम से दशहरा मैदान में एक क्वारैंटाइन सेंटर खोला जाएगा। आयोजकों ने कहा- कोरोनावायरस भी रावण की तरह खतरनाक है और इसका खात्मा करना वर्तमान समय की जरूरत है।
आयोजक रामकिशन आचार्य ने बताया कि बीकानेर में कोरोना संक्रमण चरम पर है। ऐसे में रावण दहन के बजाय लोगों को सुरक्षा की जरूरत है। हम रावण दहन करने के बजाय बीमार लोगों के लिए क्वारैंटाइन सेंटर स्थापित कर रहे हैं। जो लोग कोरोना संक्रमित हैं, घर छोटे हैं, वे यहां आकर क्वारैंटाइन हो सकते हैं। यह सेंटर दशहरा मैदान में ही बनाया जाएगा। इसके लिए 30 बेड का भी इंतजाम कर लिया गया है।
धरणीधर मैदान पर होने वाले दशहरा समारोह में 25 से 30 हजार लोग आते थे, जो महामारी के दौरान खतरनाक होता। इस बार सरकार ने ऐसे आयोजनों पर रोक लगा दी है। इसलिए कमेटी ने सोचा कि मेले के लिए मिले चंदे का कुछ अच्छा इस्तेमाल किया जाय। इसके बाद ही क्वारैंटाइन सेंटर का विचार आया।
बीकानेर में इसलिए भी ज्यादा क्वारैंटाइन सेंटर की जरूरत
आयोजन समिति के रामकिशन कहते हैं कि बीकानेर जैसे वॉल सिटी में क्वारैंटाइन सेंटर की जरूरत भी थी। बीकानेर के परकोटे में घर बहुत छोटे-छोटे होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि पंद्रह बाई तीस के मकान में दस लोगों का परिवार रहता है। ऐसे में अगर परिवार का एक भी व्यक्ति संक्रमित होता है तो पूरे परिवार में संक्रमण फैलने का खतरा होता है। यहां कोरोना पेशेंट का होम आइसोलेशन भी बहुत मुश्किल होता है। छोटे घर होने के कारण दूसरे में इंफेक्शन का खतरा रहता है। ऐसे में कमेटी को लगा कि सरकारी कोविड सेंटर्स के अलावा एक क्वारैंटाइन सेंटर होना चाहिए।
इसके बाद दशहरे के आयोजन के लिए चंदा देने वालों से कहा गया कि वे पैसे के बजाय इस बार कमेटी को हॉस्पिटल में इस्तेमाल होने वाले बेड दें। कई लोगों ने ऐसा किया तो कुछ ने बेड की कीमत दे दी। इस तरह फिलहाल 30 बेड की व्यवस्था कर ली गई। धरणीधर ट्रस्ट यहां पर अपने पास से मरीज को खाना भी देगा। ट्रस्ट ने इसके लिए चिकित्सा विभाग और प्रशासन की मंजूरी भी ले ली है। ट्रस्ट का कहना है कि अब मदद के लिए कई लोग आगे आ रहे हैं। ऐसे में अगर बजट हुआ तो 30 बेड की संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।
बात 2015 के विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले की है। पटना में अपने घर श्रीकृष्ण पुरी में बैठे रामविलास पासवान लोगों से मिल रहे थे। उसी घर के दूसरे कमरे में बेटे चिराग लोजपा के कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग कर रहे थे। तब वहां मौजूद लोगों से रामविलास ने बड़े गर्व से कहा- ‘चिराग ने सब संभाल लिया है।’ जब लोगों ने रामविलास से कहा कि आपका बेटा बहुत ज्यादा शहरी दिखता है, जबकि आप जमीनी नेता दिखते हैं। तब मुस्कुराते हुए रामविलास ने कहा- ‘वो दिल्ली में पढ़ा है न।’
खून में राजनीति, सपनों में बॉलीवुड
31 अक्टूबर 1982 को जब चिराग का जन्म हुआ, तब पिता रामविलास लोकसभा के सदस्य थे। बचपन से ही घर पर राजनीतिक माहौल था। उनकी स्कूली पढ़ाई दिल्ली में हुई और झांसी की बुंदेलखंड यूनिवर्सिटी से कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में बीटेक किया।
पढ़ाई के बाद न तो राजनीति में आए और न ही किसी टेक कंपनी में नौकरी करने गए। उन्होंने बॉलीवुड का रुख किया। साल 2011 में कंगना रनोट के साथ उनकी फिल्म आई थी, ‘मिले न मिले हम’। 13 करोड़ में बनी ये फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई थी। इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन सिर्फ 97 लाख रुपए था।
फिल्म के प्रमोशन के दौरान जब उनसे पूछा गया कि राजनीति की बजाय उन्होंने बॉलीवुड को क्यों चुना? तो इस पर चिराग ने जवाब दिया, ‘राजनीति एक ऐसी चीज है, जो मेरी रगों में बहती है। राजनीति से न मैं कभी दूर था, न हूं और न कभी रह सकता हूं। लेकिन, फिलहाल मैंने फिल्मों को अपना पेशा चुना है, क्योंकि मेरा बचपन से सपना था कि मैं अपने आप को बड़े पर्दे पर देखूं।’ हालांकि, चिराग की ये पहली और आखिरी फिल्म थी। इसके बाद उन्हें कोई फिल्म नहीं मिली।
फिर राजनीति में आए, 12 साल बाद लोजपा को एनडीए में लेकर आए
28 अक्टूबर 2000 को रामविलास पासवान ने अपनी लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा बनाई। लोजपा पहले एनडीए का ही हिस्सा बनी। रामविलास पासवान अटल सरकार में मंत्री भी रहे, लेकिन बाद में एनडीए से अलग हो गए। कहा जाता है कि 2002 में गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी का नाम आने के बाद पासवान ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया था।
बाद में जब चिराग बॉलीवुड में कामयाब नहीं हो सके, तो उन्होंने अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभालने का फैसला लिया। 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त चिराग राजनीति में एक्टिव हुए। लोग बताते हैं, 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जब नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए थे, तो चिराग के कहने पर ही लोजपा एनडीए का हिस्सा बनी। उस चुनाव में चिराग जमुई से खड़े हुए और जीते। 2014 में लोजपा 7 सीटों पर लड़ी और 6 जीती।
नीतीश के आने पर सीटों का मसला उलझा, तो भाजपा को डेडलाइन दे दी
जुलाई 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़कर दोबारा एनडीए में आ गए। 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त एनडीए में सीट शेयरिंग का मसला उलझ गया। उस समय लोजपा के अध्यक्ष रामविलास पासवान जरूर थे, लेकिन एक तरह से सारा काम चिराग ही संभाल रहे थे।
जब कई दिनों की बातचीत के बाद भी एनडीए में सीट शेयरिंग का मसला नहीं सुलझा, तो चिराग ने ट्वीट कर भाजपा को सख्त चेतावनी दे दी। उन्होंने 18 दिसंबर 2018 को ट्वीट किया कि अगर 31 दिसंबर तक सीट शेयरिंग का मसला नहीं सुलझता है, तो नुकसान हो सकता है। नतीजा ये हुआ कि चिराग के ट्वीट के 5 दिन के भीतर ही एनडीए में सीटों का बंटवारा भी हो गया। लोजपा के हिस्से में 6 सीटें आईं और इन सभी सीटों पर जीत भी गई।
6 कंपनियों में शेयर, 90 लाख का बंगला
2014 के बाद 2019 में भी चिराग जमुई से ही लड़े और जीते। इस चुनाव के वक्त उन्होंने जो एफिडेविट दाखिल किया था, उसमें उन्होंने अपने पास 1.84 करोड़ रुपए की संपत्ति बताई थी। इसमें 90 लाख रुपए तो सिर्फ एक बंगले की कीमत ही है, जो पटना में है।
चिराग के पास दो गाड़ियां हैं। पहली है जिप्सी, जिसकी कीमत 5 लाख रुपए है। और दूसरी है 30 लाख रुपए की फॉर्च्युनर। इनके अलावा चिराग पासवान 6 कंपनियों में डायरेक्टर भी हैं। इन सभी कंपनियों में उनके शेयर हैं, जिनकी कीमत 2019 के मुताबिक, 35.91 लाख रुपए है।
निशा ग्रेजुएट हैं और गुड्डी पांचवीं पास, लेकिन ये दोनों ऑनलाइन गिफ्टिंग प्लेटफाॅर्म ‘गीक मंकी’ की डायरेक्टर हैं। दोनों की उम्र भले ही 50 प्लस है, लेकिन इनका जज्बा किसी यंग एंटरप्रेन्योर से कम नहीं है। साल 2017 में इन्होंने अपने घर से गिफ्ट आइटम का बिजनेस शुरू किया था। उसी बिजनेस को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर लाने से कंपनी का सालाना टर्नओवर 2 करोड़ रुपए का हो चुका है।
निशा गुप्ता एक बिजनेसमैन फैमिली से ताल्लुक जरूर रखती हैं, लेकिन 2017 से पहले वो बिजनेस के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। उन्होंने घर पर ही एक छोटी सी दुकान खोली। यहां घरेलू सामान और गिफ्ट आइटम बेचने शुरू किए। वहीं, गुड्डी पहाड़ों के गांव में रहा करती थीं।
इन दोनों महिलाओं के साथ आने और बिजनेस करने की कहानी थोड़ी फिल्मी है। गुड्डी थपलियाल का बेटा अनिल और निशा गुप्ता की बेटी वैशाली एक-दूसरे से प्यार करते थे। दोनों ने एक साथ रोहतक के एक कॉलेज से एमसीए किया और फिर गुड़गांव में जॉब भी करने लगे।
2017 में जब दोनों ने अपने परिवार में शादी की बात रखी तो पहले तो दोनों ही परिवार नहीं माने, लेकिन बच्चों की जिद के आगे परिवार वालों ने शादी के लिए हामी भर दी। इसके बाद निशा और गुड्डी समधन बन गईं और दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। एक दिन गुड्डी ने अपने बेटे से कहा कि वो घर बैठे-बैठे बोर हो जाती हैं, उन्हें भी कुछ काम करना है।
इसके बाद अनिल और वैशाली के दिमाग में ऑनलाइन बिजनेस का आइडिया आया। उन्होंने ये आइडिया दोनों मम्मियों के साथ शेयर किया तो उन्हें भी ये आइडिया पसंद आया। फिर क्या था, दोनों ने छोटी सी तैयारी के बाद 2017 के अंत में गीक मंकी नाम से ऑनलाइन गिफ्टिंग प्लेटफाॅर्म की शुरुआत की।
लोकल आर्टिजन को जोड़ा और सिर्फ यूनीक गिफ्ट आइटम पर फोकस रखा
निशा कहती हैं, ‘मार्केट में पहले से ही ऑनलाइन गिफ्टिंग के कई ऐसे प्लेटफॉर्म मौजूद थे। अब हमारे सामने ये बड़ी चुनौती थी कि ऐसा क्या करें कि लोग हमारे प्लेटफॉर्म पर आएं। इसके बाद मैंने और गुड्डी ने अपने-अपने संपर्कों के जरिए लोकल आर्टिजन से संपर्क किया और उनके बनाए गिफ्ट आइटम्स अपने प्लेटफॉर्म पर रखना शुरू किया, साथ ही अपनी वेबसाइट पर सिर्फ यूनीक और बजट फ्रैंडली गिफ्ट ही रखने का निर्णय लिया और यही हमारी खासियत बनी।’
आज निशा और गुड्डी एक सफल बिजनेसमैन हैं, वे दोनों अपनी सफलता का क्रेडिट अपने स्थानीय आर्टिजन और ग्राहकों को देती हैं। 110 प्रोडक्ट से शुरू हुए इस बिजनेस में आज 1300 तरह के यूनीक गिफ्ट प्रोडक्ट देश के हर कोने में डिलीवर होते हैं। उनके पास 99 रुपए से लेकर 13 हजार रुपए तक के गिफ्ट आइटम मौजूद हैं।
अब उनके काम इस काम में अनिल और वैशाली भी मदद करते हैं। निशा के बेटे हर्षित गुप्ता भी अपनी बैंक की नौकरी को छोड़कर मां की कंपनी में मार्केटिंग देखते हैं। निशा बताती हैं कि आज हमारे पास 12 लोगों का परमानेंट स्टाफ है, इसके अलावा 40 लोग बतौर फ्रीलांसर भी जुड़े हैं। जिनकी सर्विस जरूरत के मुताबिक लेते हैं।’
बिजनेस से जुड़े अनुभवों को याद करते हुए निशा और गुड्डी कहती हैं कि ‘पहला साल तो सीखने में ही चला गया। उस साल महज 15 लाख का ही टर्नओवर था, लेकिन इस साल हमने बहुत कुछ नया सीखा। यही वजह से है कि दूसरे साल में हमारा सालाना टर्नओवर 2 करोड़ तक पहुंच चुका है। अब हम इसमें हर साल 50% ग्रोथ के हिसाब से प्लानिंग कर रहे हैं।’
निशा कहती हैं कि लोकल आर्टिजन के लिए बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी की वेबसाइट और एप पर प्लेटफॉर्म तो मिल जाता है, लेकिन उसकी फॉर्मेलिटीज और कमीशन बहुत ज्यादा है, जिससे लोकल आर्टिजन को ज्यादा फायदा नहीं हो पाता है। अब हमारी कोशिश है कि अब हम दूसरे लोकल आर्टिजन को को भी अपने प्लेटफॉर्म पर लाएं। यहां हम उनसे किसी भी तरह की फीस नहीं लेंगे।
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