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60 के दशक में पंजाब में 10% क्षेत्र में ही सिंचाई की सुविधा थी। किसान एक हेक्टेयर में एक किलो खाद भी नहीं डालते थे। गेहूं और धान की औसत पैदावार भी आठ क्विंटल हेक्टेयर के आसपास थी। फसलों का पालन गोबर से होता था। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई क्षेत्र बढ़ा और लोगों ने यूरिया डालना शुरू किया। इसके बाद 1966 में जैसे ही हरित क्रांति आई तो फसलों में जहर घुलना शुरू हो गया।
1960 तक जहरमुक्त रखी खेती
1947 में हमारी जमीन प्यासी थी। कुओं और तालाबों से कुछ सिंचाई होती थी। आजादी के बाद भाखड़ा-नंगल डैम बनने और उससे निकली नहरों ने पंजाब की जमीन की प्यास बुझाई। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं में सिंचाई क्षेत्र बढ़ा और लोगों ने यूरिया डालना शुरू किया। पचास के दशक में वैज्ञानिकों ने धान और गेहूं की किस्मों पर उर्वरकों के असर को जानने के लिए प्रयोग करने शुरू कर दिए थे।
उस समय बोई जानी वाली किस्में लंबी और पतली होती थीं। थोड़ा भी उर्वरक डालने से फसल गिर जाती थी। जल्द ही साफ हो गया कि खाद-पानी का फायदा उठाने के लिए हमें बौनी किस्मों की जरूरत है। पंजाब में लोग अजादी से पहले से कपास, जौं, मक्की, गन्ना, बाजरा उगा रहे थे। बड़ी बात यह थी कि 60 के दशक तक पंजाब के किसान बेचने और खुद के खाने के लिए जहरमुक्त फसलों को उगाने को तरजीह देते थे। इसके बाद 1966 में जैसे ही हरित क्रांति आई तो फसलों में जहर घुलना शुरू हो गया।
सबक...पाकिस्तान ने अपने किन्नू की मिठास बरकरार रखी, हमने कम की
1966 में हरित क्रांति के लिए पंजाब को न चुना गया होता तो शायद धान-गेहूं आज भी यहां की मुख्य फसल न होती। पीएयू के वाइस चांसलर पद्मश्री बलदेव सिंह ढिल्लों ने भी वर्चुअल किसान मेले में इस बात की पुष्टि की कि हमने दालों की खेती से मुंह मोड़ लिया है। वह बताते हैं कि एक समय बटाला,तरनतारन बेल्ट मसूर उगाने के लिए जानी जाती थी।
हालांकि पंजाब में 8 हजार हेक्टेयर के करीब मूंग की खेती होती है लेकिन अन्य दालों की खेती खत्म हो गई है या रकबा सिमट गया है। इसी पंजाब में कभी काले चने, बाजरा, गवार सहित घर के खाने के लिए बड़े स्तर पर मोटे अनाज की खेती होती थी।
हर किसान अपने परिवार के लिए कुछ न कुछ उगाता था। बुजुर्ग बताते हैं कि बंटवारे से पहले के पंजाब में एक जैसा किन्नू पैदा होता था। आज हालात यह हैं कि भारत के पंजाब के किन्नू की क्वालिटी पाकिस्तानी पंजाब के किन्नू से कमतर हो गई है। इसका कारण खादें और स्प्रे ही है।
अब 128 kg. प्रति हे. यूरिया की खपत
1966 में हरित क्रांति के लिए चुने गए पंजाब ने देश के अन्न भंडार तो भर दिए लेकिन बहुत कुछ खोकर। 1960 तक प्रति हेक्टेयर एक किलो खाद के प्रयोग से 1970 तक हमने 37.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर यूरिया डालना शुरू कर दिया। 1990-91 में यह आंकड़ा सर्वाधिक 243 किलो प्रति हेक्टेयर पहुंच गया जो 2019 में फिर कुछ घटकर 128 किलो प्रति हे. पहुंचा है।
यही नहीं हमने जो सबसे बड़ा नुकसान किया वो यह किया कि अपने लिए भी जहरमुक्त उगाना बंद कर दिया। 2000 से लेकर 2012 तक कीटनाशकों की खप्त 6970 मीट्रिक टन पहुंचा दी जबकि 1960 से पहले हमें इसकी जानकारी तक नहीं थी। 1966 के बाद ही कीटनाशकों का प्रयोग होने लगा। इसका कारण यह था कि धान की बाहर से लाई गई किस्में यहां के मौसम के अनुकूल नहीं थीं। उनको बीमारी लगती थी।
परिणामस्वरूप 1970 तक पंजाब के किसानों ने 25 मीट्रिक टन कीटनाशकों का उपयोग करना शुरू कर दिया था। इसके बाद यह तेजी से बढ़ा। इसके गंभीर नतीजे यह हुए कि हम 2020 तक 50 साल में ही यानी हरित क्रांति आने के बाद तेजी से केंसर ग्रसित होने लगे। आजादी से पूर्व पंजाब के 6000 से भी ज्यादा गावों में अपने कुएं और तालाब थे जो धीरे-धीरे खत्म हो गए।
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चिंता...कहीं अफ्रीका की तरह अपनी जमीन की उपजाऊ शक्ति न खो दे
विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता डॉ. रतन लाल ने पृथ्वी से सब कुछ हासिल करने की प्रवृत्ति की निंदा करते हुए भूमि अधारित क्रांति की आवश्यता पर बल दिया है। उन्होंने अफ्रीका का उदाहरण देते बताया कि वहां की जमीन में अधिक पोषक तत्व नहीं बचे हैं। उस मृत जमीन में अब अच्छी किस्में लगाने, उर्वरक और कीटनाशक डालने का भी कोई प्रभाव नहीं है। पंजाब भी उसी रास्ते पर चल रहा है।
अनियमित शहरीकरण के बारे में डॉ. रतन लाल ने कहा कि आने वाले वर्षों में आवास के लिए 2.5 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होगी। उन्होंने ईंट बनाने के लिए धान के पुआल के इस्तेमाल की वकालत की और मिट्टी में कार्बन बढ़ाने के तरीकों पर चर्चा की।
उन्होंने कहा कि बायोचार, खाद, जड़ों के जैविक पदार्थ, फसल के अवशेष मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों को बढ़ाते हैं। डॉ. रतन लाल ने वैज्ञानिकों से कम पानी, कम उर्वरकों और रसायनों का उपयोग करने और अधिक खाद्यान उत्पादन के लिए कम कार्बन का उपयोग करने के तरीके विकसित करने का आह्वान किया।
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