मस्तारा बानो अगले साल 50 की हो जाएंगी। लेकिन आज भी वो अपनी उम्र 32 साल ही बताती हैं। इस उम्मीद के साथ कि शायद ऐसा करने से ही सही, उनके लिए शादी का कोई रिश्ता आ जाए।जीवन के 50 बसंत अकेले ही गुजार देने वाली मस्तारा को डर है कि अगर वे अपनी असल उम्र बताएंगी तो शादी से जुड़ी उनकी आखिरी उम्मीद भी टूट जाएगी।
अधेड़ उम्र के मुहाने पर खड़ी मस्तारा इसी तरह शादीशुदा जिंदगी में दाखिल होने के अपने सपने को जिंदा रखे हुए हैं। मस्तारा जिस पंचायत में रहती हैं वहां सैकड़ों महिलाओं का दर्द भी बिलकुल उनके जैसा ही है। पूरी जिंदगी कुंवारी रहना ही इन महिलाओं की नियति है। यह फैसला अगर इन महिलाओं ने अपनी इच्छा से लिया होता तो इसमें कुछ भी गलत नहीं था।
लेकिन, शेरशाहबादी मुस्लिम समुदाय की परंपराएं ही कुछ ऐसी हैं कि इनमें लगभग हर दस में से दो लड़कियां ताउम्र अविवाहित ही रह जाती हैं। बिहार के सुपौल जिले में नेपाल बॉर्डर से बमुश्किल दस किलोमीटर की दूरी पर कोचगामा पंचायत है। मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में ज्यादातर मुस्लिम शेरशाहबादी समुदाय के ही हैं। इस पंचायत के साथ ही सीमांचल के कई दूसरे जिलों और नेपाल में भी शेरशाहबादी समुदाय के लोग रहते हैं।
कोचगामा के ही रहने वाले महबूब आलम बताते हैं, ‘शेरशाहबादी समुदाय में लड़की के परिजन न तो अपनी बेटी के लिए रिश्ता खोजते हैं और न ही किसी से ऐसा करने को कह सकते हैं। अगर वे ऐसा करते हैं तो यह समझा जाता है कि लड़की में जरूर कोई दोष है जो खुद ही उसके लिए लड़का तलाश रहे हैं। तब लड़की की शादी और भी मुश्किल हो जाती है।’
वे आगे कहते हैं, ‘लड़की वाले सिर्फ रिश्ता आने का इंतजार ही कर सकते हैं। इसलिए जिन लड़कियों के लिए रिश्ता आता है उनकी तो शादी हो जाती है, लेकिन जिनके लिए नहीं आता वो ताउम्र सिर्फ रिश्ते का इंतजार ही करती रह जाती हैं।’
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अबु हिलाल बताते हैं, ‘महिलाओं के अविवाहित रह जाने की यह समस्या तब से मजबूत हुई जब से लोग दहेज के लालच में फंसना शुरू हुए। अब उन्हीं लड़कियों की शादी आसानी से होती है जो या तो खूबसूरत हों या जिनके पास दहेज देने के लिए पैसा हो।
जिन लड़कियों का कद कुछ कम है, रंग गोरा नहीं है या नैन-नक्श अच्छे नहीं हैं उनकी शादी नहीं हो पाती। कई बार ऐसा भी होता है कि दो-तीन बहनों में से लड़के वाले छोटी बहन को पसंद कर लेते हैं। ऐसे में बड़ी लड़की से पहले छोटी की शादी हो जाती है और फिर बड़ी लड़की की शादी लगातार मुश्किल होती चली जाती है।’
शेरशाहबादी समुदाय में अविवाहित महिलाओं की कुल संख्या कितनी है, इसका कोई ताजा आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन, हाल ही में आई वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र की चर्चित किताब ‘रुकतापुर’ के अनुसार, सिर्फ कोचगामा पंचायत में ही कुछ साल पहले 35 साल से ऊपर की अविवाहित महिलाओं की संख्या 140 से ज्यादा थी।
एक ही पंचायत में जब यह आंकड़ा इतना बड़ा है तो भारत और नेपाल के कई जिलों में रहने वाली इस कुल आबादी में यह संख्या निश्चित ही हजारों में होगी।
कोचगामा पंचायत के दो बार मुखिया रह चुके और साल 2010 में कांग्रेस से विधानसभा चुनाव लड़ चुके शाह जमाल उर्फ लाल मुखिया बताते हैं कि कुछ साल पहले इस समस्या को सुलझाने के लिए पूरे समुदाय ने एक बैठक बुलाई थी। करीब सात साल पहले भारत और नेपाल के अलग-अलग इलाकों में रह रहे शेरशाहबादी समुदाय के लोगों ने इस बैठक में शामिल होकर तय किया था कि अब लड़की वालों को भी रिश्ता खोजने या इसकी पहल करना शुरू कर देना चाहिए।
लाल मुखिया कहते हैं, ‘इस पहल से काफी असर हुआ। अब ऐसी लड़कियों की संख्या कम है, जिनकी शादी नहीं हो रही हो। अब तो लड़कियां खुद भी लड़के को पसंद कर लेती हैं और उनकी शादी हो जाती है।’ लाल मुखिया की इस बात से गांव के अन्य लोग सहमत नहीं होते। अबु हिलाल कहते हैं, ‘उस बैठक के बाद भी कुछ नहीं बदला है। लोग आज भी लड़की का रिश्ता लेकर नहीं जाते।’
कोचगामा पंचायत में घूमने पर यह भी साफ हो जाता है कि लड़कियों द्वारा खुद ही लड़का खोज लेने की जो बात लाल मुखिया कह रहे हैं, उस पर विश्वास करना बेहद मुश्किल है। आज भी समुदाय की लड़कियों के लिए घर से निकलने पर सौ पहरे हैं, उन्हें काम करने या मजदूरी करने की भी इजाजत नहीं है और वे पढ़ाई भी सिर्फ मदरसों में ही कर सकती है।
द हंगर प्रोजेक्ट के लिए काम करने वाली शाहीना परवीन ने इन महिलाओं की आवाज कई बार उठाई है। शाहीना परवीन मानती हैं कि इस समस्या से निकलने के लिए जो कदम उठाए जाने चाहिए, उनमें से एक अहम कदम लड़कियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाना भी है। वे कहती हैं, ‘ये लड़कियां अगर बाहर निकलेंगी, अच्छी पढ़ाई करेंगी और नौकरियां करने लगेंगी तो निश्चित ही इस समस्या से भी निकल जाएंगी।’
लेकिन, ग्रामीण इलाकों में रहने वाले मुस्लिम समुदाय में ऐसा होना बहुत मुश्किल है। वहां तमाम मौलवी लड़कियों को मदरसों तक ही सीमित रखने की वकालत करते हैं और लोग उन्हीं की बात मानते हैं। बल्कि लड़कियों पर भी मौलवी के उपदेशों का ही सबसे मजबूत असर रहता है।
जो लड़कियां अविवाहित रह जाती हैं वो अपनी पैत्रिक सम्पत्ति पर भी दावा नहीं कर पाती। शिक्षित लड़कियां ही नहीं कर पाती तो अशिक्षित गांव की लड़कियों से यह उम्मीद करना भी बेमानी है। ऐसे में वो लड़कियां हमेशा अपने भाई पर बोझ समझी जाती हैं और माना जाता है कि वे भाई के रहम पर ही पल रही हैं और भाई उन्हें साथ रखकर उन पर अहसान कर रहा है।’
बिहार में जब चुनाव होने जा रहे हैं तो शेरशाहबादी समुदाय की इन हजारों अविवाहित महिलाओं का मुद्दा किसी के लिए भी चर्चा का विषय नहीं है। जिस विधानसभा क्षेत्र में इस समुदाय की बहुलता है, वहां भी इस मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं है।
शाहीना परवीन कहती हैं, ‘इनमें से अधिकतर महिलाएं कुपोषण और एनीमिया से पीड़ित होती हैं क्योंकि बेहद मुश्किल से इन्हें दो वक्त का खाना भी नसीब होता है। रमजान में जो लोग जो दान-धर्म करते हैं उसके सहारे ही इनका पेट भरता है।
पॉलिसी के स्तर पर आज तक इनके लिए कुछ नहीं किया गया। विधवा महिलाओं को जो पेंशन मिलती है ये महिलाएं उसकी भी हकदार नहीं होती जबकि देखा जाए तो इनका पूरा जीवन विधवा महिलाओं की तरह ही अकेला और बेसहारा रहकर बीतता है।’
ये अविवाहित महिलाएं अपने हालात के लिए अपनी किस्मत के अलावा किसी और को दोषी नहीं मानती। लेकिन, वे सरकार से इतना जरूर चाहती हैं कि जब पूरे देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात हो रही है और आत्मनिर्भर भारत’ का नारा जगह-जगह गूंज रहा है तो सरकार इन्हें भी आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कोई पहल करे।
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