राधे गोविंद ठाकुर दिल्ली के संगम विहार में रहते हैं। वे पिछले 20 सालों से दिल्ली में प्राइवेट गाड़ी चलाते आए हैं। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि कुछ काम न हो। लेकिन, अप्रैल से उनका काम-धंधा पूरी तरह बंद हो गया। जून में अपने घर मधुबनी गए थे। 10 अगस्त को लौटे तो मालिक ने काम पर आने से मना कर दिया क्योंकि अब बेटा स्कूल नहीं जाता।
मालिक को हफ्ते में तीन या चार दिन ही ऑफिस जाना होता है इसलिए वो खुद ही गाड़ी ड्राइव कर लेते हैं। पहले वे रोजाना ऑफिस जाते थे। बच्चों को स्कूल छोड़ना और लाना होता था। अब वो सब बंद हो गया इसलिए राधे का काम भी खत्म हो गया। उन्हें 20 हजार रुपए महीना सैलरी मिलती थी। इनकम बंद होने से वे पिछले अप्रैल से ही मकान का किराया नहीं भर पाए हैं।
दो बच्चे हैं, पिछले दो महीने से उनके स्कूल की फीस भी जमा नहीं कर पाए। खाना-पीना कैसे चल रहा है? इस पर कहते हैं, मेरे पास बाइक है, उसे उबर में अभी जोड़ा है। थोड़ा बहुत काम मिलना शुरू हुआ है। उसी से जो पैसा आता है, उससे दाल-रोटी चल रही है। लेकिन, ऐसा पहली बार हुआ, जब मेरे पास नौकरी नहीं है।
राधे जैसी कहानी देश के लाखों लोगों की है, जिनका कोरोना के चलते काम-धंधा बंद हो गया। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन और एशियन डेवलपमेंट बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, कोरोना के चलते देश में करीब 41 लाख लोगों ने नौकरियां खोई हैं। सबसे ज्यादा असर कंस्ट्रक्शन और फर्म सेक्टर के वर्कर्स पर पड़ा है। सिर्फ नौकरियां ही नहीं गईं बल्कि काम-धंधे भी बंद हुए।
हैदराबाद के रहीस पिछले तीन सालों से पैसा जोड़ रहे थे, उन्हें अपना काम शुरू करना था। उन्होंने तीन साल में तीन लाख रुपए जोड़े और जनवरी-2020 से इवेंट मैनेजमेंट का काम शुरू कर दिया। जनवरी से मार्च के बीच काम चल भी अच्छा रहा था। मार्च के आखिरी से काम बंद हुआ तो अब तक सब बंद जैसा ही है।
कहते हैं, बाजार मैं मेरे दो-ढाई लाख रुपए फंसे हैं। अब लोगों के पास पैसे हैं ही नहीं तो वो देंगे कहां से। बोले, इससे अच्छा तो होता कि काम शुरू ही नहीं करता। कम से कम तीन लाख रुपए की जो सेविंग थी, वो तो बनी रहती। रहीस ने तीन लोगों को अपनी कंपनी में काम पर भी रखा था, उन्हें भी निकाल दिया।
ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जिन्हें कोरोना के चलते शहर छोड़ना पड़ा और अब बेरोजगार हैं। अर्जुन रस्तौगी हैदराबाद में नौकरी किया करते थे लेकिन कोरोना के चलते उन्हें अपने घर अहमदाबाद आना पड़ा क्योंकि वहां देखरेख करने वाला कोई नहीं था।
अब उन्हें नौकरी तो मिल रही है, लेकिन सैलरी बहुत कम ऑफर की जा रही है। कहते हैं, मान लीजिए पहले जहां 10 रुपए मिलते थे, अब उसी काम के 2 या 3 रुपए ऑफर किए जा रहे हैं, तो ऐसे में कैसे कहीं ज्वॉइन कर लूं। अर्जुन कहते हैं, बहुत सी कंपनियां ने एम्प्लॉइज की सैलरी भी होल्ड कर दी।
हालांकि, बड़ी कंपनियों ने न एम्प्लॉईज को नौकरी से निकाला न सैलरी घटाई। वर्क फ्रॉम होम की फेसिलिटी दी है, लेकिन इसका फायदा उन्हीं लोगों को मिला जो बैक एंड में काम करते हैं। बिहार के नंदन झा गुड़गांव में पिछले 7 सालों से नौकरी कर रहे थे। लॉकडाउन के पहले तक उन्हें 12 हजार रुपए महीना मिल रहा था। हाल-फिलहाल उनके पास कोई काम नहीं है।
कहते हैं, अपने घर के आसपास की नौकरी ढूंढ रहा हूं लेकिन अभी तक कुछ मिला नहीं। राशन कार्ड बन गया, इसलिए गेहूं-चावल काफी सस्ते में मिल जाता है। जो पैसा जुड़ा था, वो सब खत्म हो गया। तमाम एनजीओ लॉकडाउन में लोगों की मदद के लिए आगे आए हैं।
मौजूदा हालात कितने खराब हैं? इस पर गूंज एनजीओ के फाउंडर अंशु गुप्ता कहते हैं कि, हालात तो लॉकडाउन के पहले से ही खराब हैं। संसाधन कम हो गए, लोग बढ़ गए। कुछ राज्यों ने लेबर लॉ को भी कमजोर कर दिया। गांव में कामकाज कुछ है नहीं। पलायन करने वाले शहर की तरफ लौट रहे हैं, लेकिन शहरों में भी काम नहीं है।
ऐसे हालात में लोग कर्ज में दबते चले जाते हैं। उनका शोषण होता है और कई जिंदगी से हारकर सुसाइड तक कर लेते हैं। मौजूदा हालात ऐसे ही हैं।
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