बुलंदशहर के अनूपशहर कस्बे में एक बेहद खूबसूरत सपना साकार हो रहा है। ऐसा सपना जो वीरेंद्र सिंह ने आज से 20 साल पहले देखा था। वीरेंद्र तब 60 साल की उम्र पूरी कर चुके थे, लेकिन उनमें अपने स्टार्ट-अप को लेकर किसी युवा जैसा ही जोश था।
वीरेंद्र सिंह मूल रूप से अनूपशहर के ही रहने वाले हैं, लेकिन जवानी में ही वे अमेरिका चले गए थे और जीवन का ज्यादातर समय उन्होंने वहीं गुजारा। 60 साल की उम्र में जब वे रिटायर हुए तो बहुत कुछ हासिल कर चुके थे। अमेरिका की एक चर्चित केमिकल कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में वे अपनी जगह बना चुके थे और इतना पैसा कमा चुके थे कि उनकी आने वाली पीढ़ियां आराम से जीवन बिता सकें।
वीरेंद्र बताते हैं, ‘मैंने जब इतना कुछ हासिल कर लिया था तो अमरीका में मेरे कई विदेशी मित्र मुझसे अक्सर कहते थे कि भारत को तुम जैसे लोगों कि ज्यादा जरूरत है और तुम्हें वहां वापस जाकर कुछ करना चाहिए। उनकी बातें सही भी थीं। जब मैं वापस अनूपशहर आया तो मुझे एहसास हुआ कि यहां बहुत कुछ करने की गुंजाइश है और यह करना बेहद जरूरी भी है।’
वे आगे कहते हैं, ‘एक घटना ने मुझे झकझोर कर रख दिया था। मैंने देखा कि गांव की बच्ची, जिसकी उम्र बमुश्किल 12-13 साल रही होगी, उसकी सलवार में कुछ खून लगा था। ये देखकर उस बच्ची की चाची ने उसकी मां से कहा कि बेटी अब जवान हो गई है और इसकी शादी की उम्र आ गई है। यही पैमाना होता था बच्चियों कि शादी करवा देने का। तब मैंने मन बनाया कि मुझे गांव की इन बच्चियों के लिए कुछ करना है।’
इस घटना के बाद वीरेंद्र सिंह ने अनूपशहर में एक अनोखा स्कूल शुरू किया। ऐसा स्कूल जिसमें आज 1600 से ज्यादा गरीब बच्चियां मुफ्त में पढ़ाई कर रही हैं। इतना ही नहीं, बीते 20 सालों में इस स्कूल से पढ़ी कई बच्चियां आज देश के अलग-अलग शहरों में नौकरियां कर रही हैं। कुछ बच्चियों की उपलब्धियों की उड़ान तो देश की सीमा तक पार कर चुकी हैं।
दिलचस्प यह भी है कि ये सभी बच्चियां समाज के सबसे निचले तबके से आती हैं। बेहद गरीब परिवार की लड़कियों को ही इस स्कूल में दाखिला मिलता है। जिन लड़कियों ने कभी स्कूल की शक्ल भी नहीं देखी थी और जिनकी अमूमन 18 साल की उम्र से पहले ही शादी करवा दी जाती थी वही लड़कियां आज इस स्कूल में पढ़कर अपने सपनों को पंख दे रही हैं, लेकिन यह सब कुछ इतना आसान भी नहीं रहा और इसके लिए वीरेंद्र सिंह और उनकी टीम ने कई चुनौतियों का सामना किया है।
वीरेंद्र सिंह बताते हैं कि स्कूल की शुरुआत 2000 में हुई। मेरी बेटियों ने सुझाव दिया कि पुश्तैनी जमीन पर बन रहे इस स्कूल का नाम ‘परदादा-परदादी’ स्कूल होना चाहिए। मुझे ये नाम पसंद आया और हमने दो कमरों से इस स्कूल की शुरुआत की। वीरेंद्र सिंह का साथ दिया भूटान से लौटे शाजन जोश ने।
स्कूल शुरू तो हो गया, लेकिन शुरुआत में किसी भी गांव वाले ने अपने बच्चों को यहां नहीं भेजा। शाजन जोश याद करते हैं, ‘उस दौर में सभी लोग हम पर शक करते थे। लोगों को लगता था कि विदेश से कोई पैसे वाला आया है, दो-चार दिन हमसे वादे करेगा और फिर लौट जाएगा, लेकिन हमने गांव वालों को समझाया कि हम आपसे कोई फीस नहीं मांग रहे, आप एक-दो महीने अपने बच्चों को भेजकर देखिए फिर भी अगर आपको ठीक न लगे तो आगे से मत भेजिएगा।’
इसके बाद भी जब बच्चे आना शुरू नहीं हुए तो वीरेंद्र सिंह और शाजन जोश ने मिलकर नई रणनीति बनाई। उन्होंने बच्चों के अभिभावकों से वादा किया कि बच्चों को मुफ्त शिक्षा और मुफ्त भोजन के साथ ही हर दिन स्कूल आने पर 10 रुपए भी दिए जाएंगे। वीरेंद्र बताते हैं कि यह स्कीम काम कर गई। शुरुआत में लोगों ने पैसों के लालच में बच्चों को भेजना शुरू कर दिया।
आगे चलकर इस स्कीम ने कुछ मुश्किलें भी बढ़ाईं। हर दिन स्कूल आने के जो 10-10 रुपए बच्चों के खाते में जमा होते थे, वह जैसे ही एक-दो हजार की रकम में बदलते तो लोग पैसा निकाल लेते और फिर बच्चों को आगे स्कूल नहीं भेजते। तब इस रणनीति में बदलाव किए गए और तय हुआ कि अगर बच्चा दूसरे साल स्कूल छोड़ देता है तो उसे पहले साल के पैसे नहीं दिए जाएंगे।
इससे कुछ हद तक फायदा हुआ, लेकिन यह तरीका भी जब कारगर नहीं हुआ तो एक और बदलाव इस रणनीति में किया गया। अब तय हुआ कि बच्चों को यह पैसा तभी दिया जाएगा जब वे 10वीं पास कर लें। यह तरीका काम कर गया। वीरेंद्र कहते हैं, ‘लोगों ने यही मान लिया कि चलो इस बहाने बच्चा मुफ्त में पढ़ भी रहा है और 10वीं पास होने तक उसके लिए एक रकम भी जुड़ रही है जो उसकी शादी में काम आ सकती है।’
उधर, स्कूल में इन बच्चियों पर इतनी मेहनत की गई कि बच्चियां खुद ही उच्च शिक्षा के सपने देखने लगीं। दो कमरों से शुरू हुआ स्कूल एक बहुमंजिला इमारत में बदल गया और 30 एकड़ में फैल गया। अब गरीब बच्चों के म माता-पिता भी गर्व कहने लगे कि उनकी बच्चियां एक ऐसे स्कूल में पढ़ती हैं जो किसी भी पब्लिक स्कूल से कम नहीं है।
शाजन जोश बताते हैं, ‘स्कूल में हर बच्चे की पढ़ाई पर औसतन 39 हजार रुपए सालाना खर्च होता है। यह पैसा अधिकतर अप्रवासी भारतीय देते हैं, जिन्होंने इन बच्चों की शिक्षा का जिम्मा उठाया है। 12वीं तक के बच्चों के लिए सब कुछ मुफ्त है, लेकिन उसके आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को खुद भी कुछ जिम्मेदारी लेनी होती है।’
12वीं के बाद यहां के बच्चे देश और विदेश के भी अलग-अलग कॉलेजों में जाने लगे हैं। इसके लिए भी इस स्कूल ने एक अनोखी योजना बनाई है। इन बच्चों की उच्च शिक्षा पर होने वाला खर्च परदादी-परदादी स्कूल ही उठाता है, लेकिन यह खर्च अब लोन की तरह दिया जाता है। उच्च शिक्षा के लिए करीब एक लाख 30 हजार रुपए हर साल इन बच्चों का खर्च होता है। यह पैसा इन बच्चों पर इस वादे के साथ खर्च किया जाता कि वे नौकरी लगने के बाद इसे स्कूल को वापस करेंगे, ताकि उनके जैसी ही अन्य लड़कियां भी इस पैसे से उच्च शिक्षा हासिल कर सकें।
वीरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘हमारी सैकड़ों लड़कियां उच्च शिक्षा पूरी करके अब नौकरी कर रही हैं और मजेदार बात है कि सौ फीसदी लड़कियों ने लोन का पैसा वापस किया है। ये लड़कियां खुद बहुत जिम्मेदारी से इस बात को अब समझती हैं कि जिस पैसे से उन्होंने अपने सपने पूरे किए, वही पैसा उन जैसी कई लड़कियों के काम आएगा।’
परदादा-परदादी स्कूल में आज आस-पास के 65 गांवों की करीब 1600 लड़कियां पढ़ रही हैं। स्कूल की 17 बसें हैं जो इन लड़कियों को गांव-गांव लेने और छोड़ने जाती हैं। स्कूल में करीब 120 लोगों का टीचिंग स्टाफ है और बच्चों को सिलाई-बुनाई जैसे हुनर भी सिखाए जाते हैं। दिलचस्प है कि यह सब कुछ सरकारी मदद के बगैर होता है।
वीरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘यहां कई नेता आते हैं और स्कूल की तारीफ करते हैं। मुझे नेताओं या सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। न उनकी तारीफ और न ही उनका पैसा, लेकिन मैं इतना जरूर चाहता हूं कि ऐसे मॉडल अलग-अलग गांव-गांव में शुरू हों। मेरा सपना है कि जल्द ही इस स्कूल में बच्चियों की संख्या 6000 कर सकूं। अभी सिर्फ 50 बच्चियां हर साल 12वीं पास कर रही हैं। मैं चाहता हूं हर साल कम से कम 500 बच्चियां यहां से 12वीं पास करें।’
कोविड संक्रमण के दौर में ऑनलाइन क्लास चलाने के लिए स्कूल ने 10वीं और 12वीं में पढ़ने वाली सभी बच्चियों को टैबलेट भी मुफ्त बांटे हैं, ताकि वे ऑनलाइन पढ़ाई कर सकें। बच्चों को पढ़ाने के साथ ही यह स्कूल कम्युनिटी डेवलेपमेंट सेंटर भी चला रहा है, जिसमें आस-पास के गांवों की पांच हजार से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं।
यहां विलेज प्रोडक्शन केंद्र भी खोले गए हैं जहां लोगों को 15 दिनों की ट्रेनिंग दी जाती है और ब्लैकबेरी, एलन सोली जैसे बड़े ब्रांड के लिए प्रोडक्ट तैयार किए जाते हैं। बीते सात सालों से इस स्कूल में पढ़ रही कुसुम के पिता एक मजदूर हैं। वे कहते हैं, ‘यह स्कूल नहीं होता तो हम कभी अपनी बेटी को पढ़ा नहीं सकते थे। आज बेटी जब अंग्रेजी बोलती है तो सीना चौड़ा होता है। इसकी उम्र में गांव में अक्सर शादियां हो जाती हैं, लेकिन अब हम कुसुम की शादी के बारे में अभी नहीं सोच रहे। स्कूल उसे आगे पढ़ाने की बात कह रहा है तो हम उसका पूरा साथ देंगे।’
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