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Tuesday, January 5, 2021

भाजपा का मूल मंत्र है- प्रतीकों और धार्मिक भावनाओं का नशीला विमर्श

2021 में राष्ट्रीय स्तर वाली राजनीति में कोई खास हलचल नहीं होगी। एक तरह की जड़ता जारी रहेगी क्योंकि ऐसा विपक्ष नदारद है जो दिल्ली की राजनीति में हलचल तो छोड़िए, एक ढंग की बहस भी छेड़ पाए। नए साल में विधानसभा चुनावों का रोमांच होगा। सबसे पहले बात बंगाल की। इसे जीतना भाजपा का ड्रीम प्रोजेक्ट है।

यहां 27% की मुस्लिम आबादी भाजपा को वो स्क्रिप्ट लिखने की ज़मीन देती है, जिसमें भाजपा की महारत है- ध्रुवीकरण। उधर ममता के खिलाफ एंटी इंकम्बेन्सी का मूड है, लेकिन ममता का जुझारूपन भी कम नहीं। भाजपा यहां जनाधार बढ़ाने के लिए ममता पर तुष्टिकरण, बांग्लादेशी लोगों का आना, भ्रष्टाचार की बातें करती रही है। लेकिन पार्टी कैडर खड़ा करना अभी चुनौती है। इसीलिए टीएमसी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को तोड़कर भाजपा में लाना उसकी एक बड़ी रणनीति है।

भाजपा यहां भी मुख्यमंत्री का चेहरा पहले नहीं बता पाएगी। इसलिए ये चुनाव दीदी बनाम मोदी ही होगा। 2019 में भाजपा को 18 लोकसभा सीटें और 40% वोट मिले थे। लेकिन ये कहानी दोहरा पाना मुश्किल है। इससे पहले 2016 की विधानसभा में भाजपा को 10% वोट मिले जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उसने 17% का आंकड़ा छू लिया था।

ताज़ा सर्वे बताते हैं कि फिलहाल टीएमसी भाजपा से आगे है। बंगाल का चुनाव त्रिकोणात्मक होगा। लेकिन कई सीटों पर एआईएमआईएम भी होगी। यानी मुस्लिम बहुल 125 सीटों पर वोट बंटने की संभावना है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि अब तक लिबरल मिज़ाज का बंगाल क्या भाजपा की व्याख्या वाले हिंदुत्व को अपना लेगा।
तमिलनाडु चुनाव में भाजपा किंग मेकर बनने के लिए उतर रही है। बड़ी महत्वाकांक्षा है कि द्रविड राजनीति में पहली बार बड़ी ग़ैर द्रविड पार्टी बड़े रोल में उतरे। इसके लिए उत्तर भारत की हिंदी भाषी पार्टी, तमिल दिखना चाहती है। एक उदाहरण पर गौर कीजिए- प्रधानमंत्री मोदी का तमिलनाडु फ़ोकस। शी जीनपिंग का स्वागत तमिलनाडु में, मोर के साथ तस्वीर, जो मुरुगन का वाहन है।

भाजपा का मूल मंत्र है- प्रतीकों और धार्मिक भावनाओं का नशीला विमर्श। इसीलिए अगर तमिलनाडु में उत्तर का ‘जय श्रीराम’ नहीं चलेगा तो ये लो- मुरुगन यानी गणेश के भाई कार्तिकेय। ज्यादातर तमिल मुरुगन को इष्टदेव मानते हैं।
नए तमिलनाडु की राजनीति की धुरी हैं पेरियार। द्रविड़ उभार के जनक थे। जातीय विषमता के खिलाफ संघर्ष और समाज सुधार के आंदोलन के इस प्रणेता को भी भाजपा कैसे अपना बना ले, ये भी एक समानांतर कथा चल रही है। भाजपा का गेम प्लान यहां डीएमके-कांग्रेस को सत्ता में वापस आने से रोकना है।

एआईएडीएमके के खिलाफ एंटी इंकम्बेन्सी है। भाजपा की कोशिश है, लोकल नेताओं का अधिग्रहण कर उन्हें भाजपा के टिकट पर लड़ाए। कर्नाटक के बाद तमिलनाडु में मौजूदगी बढ़ती है, तभी उत्तरी राज्यों पर उसकी निर्भरता कम होती है, ये मूल आइडिया है।
डीएमके, लेफ्ट व कांग्रेस गठजोड़ मजबूत है लेकिन करुणानिधि के बाद उसका ये पहला चुनाव है। एमके स्टालिन करुणानिधि के राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं। इसलिए उनके नाराज़ भाई अलगिरी भाजपा के साथ जुगलबंदी में रहेंगे। एक गुत्थी है जो कुछ दिनों में साफ़ हो जाएगी। जयललिता की हमराज़ शशिकला ने जेल से छुट्टी मांगी है। मुख्यमंत्री ई पालनिसामी और ओ पन्नीरसेलवम, दोनों ही उनके कृपापात्र थे। उनका साथ छोड़ा और उन्हें पार्टी से भी निकाल दिया। शशिकला के भाई ने एक नई पार्टी बना ली, अब शशिकला का राजनीतिक औज़ार वही पार्टी होगी। तमिलनाडु इस बार पक्के तौर पर नए समीकरण देखने जा रहा है। देखना यह होगा कि गैर द्रविड़ राजनीतिक किरदारों को ये राज्य कितनी जगह देता है।
केरल में लेफ्ट फ्रंट को हराना भाजपा का पुराना सपना है। मुस्लिम व ईसाई केरल में बड़ा फैक्टर हैं। यहां विडंबना देखिए- कम्युनिस्ट पार्टियां व भाजपा जानी दुश्मन हैं। लेकिन यहां लेफ्ट फ्रंट का बड़ा जनाधार हिंदू वोटर हैं। यानी भाजपा को पनपना है तो उसे लेफ्ट फ्रंट के वोटरों को लुभाना है। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूडीएफ भी मजबूत है। लेकिन भाजपा का आक्रामक अभियान इस बार अनिश्चित नतीजों वाला त्रिकोणात्मक खेल बना सकता है।
2021 के राज्य चुनावों में भाजपा जीती तो ये रिपोर्ट कार्ड में एक और ऐतिहसिक साल के रूप में दर्ज होगा। लेकिन एक मायने में ये राज्य चुनाव अहम हैं कि इसे काफी लोग लोकसभा की ड्रेस रिहर्सल के रूप में देखेंगे क्योंकि उत्तर के कई राज्यों में भाजपा उच्चतम ग्राफ़ छू चुकी है।

वहां के संभावित नुकसान की भरपाई के लिए इन ग्रीन फ़ील्ड इलाक़ों में जीतना भाजपा के लिए ज़रूरी है। 2021 के राज्य चुनाव नतीजों का आकार प्रकार जैसा भी हो, एक बात पक्की है। भाजपा ने चुनाव शास्त्र को जिस कल्पनातीत स्तर पर पहुंचा दिया है, उसके नए एपिसोड जारी रहेंगे और विपक्ष इस शास्त्र को समझने में इस साल भी संघर्षरत ही रहेगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)



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संजय पुगलिया, ‘दि क्विंट’ के संपादकीय निदेशक


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