अमेरिका में तीन नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव होने हैं। रिपब्लिकन पार्टी ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर फिर भरोसा किया है, जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी ने जो बाइडेन को उम्मीदवार बनाया है। अब खबरें आ रही हैं कि चुनावों से ठीक 60 दिन पहले ट्रम्प के कैम्पेन की तिजोरी खाली होने के कगार पर है। इसे लेकर ट्रम्प कैम्पेन के अधिकारियों में घमासान चल रहा है। खैर, चुनाव हैं और ट्रम्प इतने बड़े कारोबारी हैं कि कहीं न कहीं से पैसा तो जुटा ही लेंगे। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों के फंडिंग का तरीका हमारे यहां के लोकसभा चुनावों से किस तरह अलग है।
अमेरिका में कुल कितना खर्च होता है, या होगा?
- लोकतंत्र भारत का हो या अमेरिका का, प्रचार अभियानों के लिए पैसे जुटाने ही पड़ते हैं। निगरानी और प्रभावी रेगुलेशन भी चाहिए ताकि चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता बनी रहे। अमेरिका में रेगुलेशन तीन तरह से अमल में लाए जाते हैं।
- वर्ष 2012 में चुनावी प्रचार में फंडिंग में नए स्रोत सामने आए जिससे चुनाव खर्च में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई। वर्ष 2016 में राष्ट्रपति चुनावों पर प्रति उम्मीदवार एक अरब डॉलर यानी करीब 6,800 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान जताया गया है।
- वहीं, एडवर्टाइजिंग एनालिटिक्स क्रॉस स्क्रीन मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार 2020 के चुनावों में कोरोना की वजह से प्रोग्राम कम हो रहे हैं। इससे सोशल मीडिया और टीवी विज्ञापनों पर खर्च बढ़ने वाला है। 2020 के चुनाव 70 हजार करोड़ रुपए यानी 10 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकते हैं।
चुनावी खर्च पर क्या कहता है अमेरिकी कानून?
- अमेरिकी कानून के मुताबिक किसी उम्मीदवार को कोई आदमी 2,800 डॉलर से ज्यादा का चंदा नहीं दे सकता। हालांकि, उम्मीदवार अपनी निजी संपत्ति से जितना चाहें उतना पैसा चुनाव प्रचार पर खर्च कर सकते हैं।
- पॉलिटिकल एक्शन कमेटियों को चुनाव प्रचार के लिए खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। हालांकि, ये कमेटियां सीधे उम्मीदवारों से नहीं जुड़ी होती हैं। उम्मीदवार लोगों से मिले पैसे ही खर्च करते हैं।
- इससे ही उन्हें फेडरल फंड का उपयोग करने का अधिकार मिल जाता है। अमेरिकी के संघीय चुनाव आयोग के मुताबिक प्राइमरी कैम्पेन में उम्मीदवार को फंडिंग करने वाले हर समर्थक के बदले 250 डॉलर की रकम मिलती है।
- इसके अलावा प्रमुख पार्टी के उम्मीदवारों को आम चुनाव में खर्च करने के लिए भी पैसा मिलता है। 1976 से 2012 के बीच प्रमुख पार्टियों के उन सम्मेलनों के लिए भी पैसा दिया गया जिनमें उम्मीदवारों का नामांकन होता है।
- 2014 में यह कानून बना कि सम्मेलनों के लिए सरकारी पैसा नहीं मिलेगा। उम्मीदवारों को बहुत पैसा जुटाने की जरूरत पड़ती है ताकि वो अपनी प्रचार टीम को भुगतान कर सकें या फिर विज्ञापन खरीद सकें।
- चुनावों के लिए पैसा अहम है, लेकिन इतना भी नहीं कि नतीजों को प्रभावित कर सके। आखिर पिछले चुनाव में ट्रंप के मुकाबले दोगुनी रकम (60 करोड़ डॉलर) खर्च करने के बाद भी हिलेरी क्लिंटन हार गई थीं।
भारत में 2019 में कितना खर्च हुआ
- 2019 के लोकसभा चुनावों की छह सप्ताह तक चली प्रक्रिया में लगभग 55,000 करोड़ रुपए खर्च हुए। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार 2019 में 2014 के लोकसभा चुनाव से 40 प्रतिशत ज्यादा पैसा खर्च हुआ।
- 2014 के लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया पर 250 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। वहीं, 2019 में यह खर्च बढ़कर 5,000 करोड़ रुपए के पार हो गया। बाकी खर्च में विज्ञापन, रैलियां, नेताओं और हेलिकॉप्टर और दूसरे वाहन समेत अन्य खर्च हैं।
- देशभर की 543 लोकसभा सीटों पर चुनाव के लिए 8,000 से ज्यादा प्रत्याशी मैदान में थे। चुनाव के दौरान नेताओं ने जनाधार दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित की। रैली में लोगों को लाने-ले जाने के लिए फ्री वाहन, महंगा खाना और कैश भी दिया गया।
- दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक प्रति वोटर 700 रुपए खर्च हुए। यानी हर संसदीय क्षेत्र में एक अरब रुपया। सीएमएस के चेयरमैन एन. भास्कर राव के मुताबिक यही गति रही तो 2024 का लोकसभा चुनाव एक लाख करोड़ रुपए का होने वाला है।
- चुनाव आयोग की गाइडलाइन के मुताबिक एक उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में 54 से 70 लाख रुपए तक खर्च कर सकता है। हर राज्य में सीमा अलग-अलग है। विधानसभा चुनावों में खर्च की सीमा 20 से 28 लाख रुपए के बीच है।
भारत में पार्टियां कैसे जुटाती हैं चंदा?
- आम लोग और कॉर्पोरेशन राजनीतिक पार्टियों को दान देते हैं। इसमें यह साफ नहीं हो पाता कि किसने पैसा दिया है, इसलिए यह व्यवस्था पारदर्शी नहीं है। पारंपरिक रूप से इलेक्टोरल ट्रस्ट, कैश और चेक से ही पार्टियों को पैसे मिलते रहे हैं।
- राजनीतिक पार्टियों को 20 हजार रुपए से ज्यादा नगद मिली राशि पर ही देने वाले का नाम बताना होता है। ज्यादातर पार्टियों को चंदे की राशि 20 हजार रुपए से कम के चंदे के तौर पर मिलती है। इससे उन्हें नाम नहीं बताना पड़ता।
- 2017 में चुनावी चंदे के नियमों में बदलाव हुआ था। पार्टियों को कॉर्पोरेट डोनेशन पर लगी सीमा की पाबंदी हटाई थी। इसके तहत कॉर्पोरेट को तीन साल के औसत नेट प्रॉफिट के 7.5 प्रतिशत से ज्यादा राशि चंदे के तौर पर देने की अनुमति नहीं थी।
- सबसे बड़ा बदलाव था इलेक्टोरल बॉन्ड के तौर पर। इसके तहत कोई भी कंपनी किसी भी पार्टी के स्टेट बैंक के खाते में पैसा जमा कर सकती है। डोनर जितना चाहे उतने बॉन्ड खरीद सकते हैं। उसकी पहचान भी जाहिर नहीं होती। राजनीतिक पार्टियों को बताना पड़ता है कि उन्हें बॉन्ड से कितना पैसा मिला है।
- 2004 में भारत की छह राष्ट्रीय पार्टियों ने औपचारिक तौर पर 2.69 अरब रुपए खर्च किए थे। 2014 के चुनावों में यह राशि पांच गुना बढ़कर 13.09 अरब रुपए हो गई। 2014 में भाजपा ने कांग्रेस के मुकाबले 40% ज्यादा पैसा खर्च किया था।
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