सरायकेला के गैरेज चौक के पास 45 वर्षीय सतीश सिंह मोदक कांपती हाथों से बाइक का पंक्चर बना रहे हैं। थोड़ी ही दूर पर पारिजात के पेड़ से गिरते फूल और सामने खेत में उगे कास के फूल उन्हें नवरात्र आने का संकेत दे रहे हैं। पिछले साल की ही बात है, कैसे गर्व से देवी दुर्गा के रूप में वे छऊ नृत्य कर रहे थे, तो तालियों से लोग उनका स्वागत कर रहे थे।
कोरोना काल में तीन दशक से सीखी उनकी कला बाइक की स्टेपनी पर रबर चिपकाते मरी जा रही है। वहीं गुदली के पास संजय कर्मकार आलू बेच रहे हैं, जो कभी महिषासुर की भूमिका में उछलते-कूदते नहीं थकते थे।सतीश और संजय जैसा हाल रंजीत आचार्य का भी है, जिनकी छह पीढ़ियों ने छऊ की ट्रेनिंग दी है। आज वे डेयरी में दूध बेच रहे हैं।
इस बार एक भी बुकिंग नहीं हुई, न तो झारखंड में और न ही देश-दुनिया से
सरायकेला में ही 15वीं शताब्दी में छऊ नृत्य कला की शुरुआत हुई थी। 19वीं शताब्दी के अंत (1890) से इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि दुर्गा पूजा में इनकी प्रस्तुति परंपरा बन गई। दुर्गोत्सव में देश-दुनिया से इन्हें प्रदर्शन के लिए आमंत्रण मिलते हैं। लेकिन, इस बार एक भी बुकिंग नहीं हुई है। न तो झारखंड में और न ही देश-दुनिया से।
पिछले साल फुरसत नहीं थी, इस बार काम नहीं
छऊ के गुरु पद्मश्री शशधर आचार्य ने बताया कि पहले दुर्गा पूजा के समय छऊ कलाकारों को फुरसत नहीं मिलती थी। देश भर से इनकी डिमांड आती थी। इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा। कलाकार व कला खुद को बचाने के लिए आज संघर्षरत हैं।
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